अवबोध
धर्म बोध
शील धर्म
प्रश्न 5 : शील (ब्रह्मचर्य) के उत्कृष्ट भेद कितने हैं?
उत्तर : दिगंबर ग्रंथों में शील के 18,000 भेद मिलते हैं, वे हैं-स्त्री के चार प्रकार हैं-(1) मनुष्यणी, (2) देवांगना, (3) पशु स्त्री, (4) स्त्री चित्र। इन चारों के साथ तीन करण व तीन योग से अब्रह्म का सेवन नहीं करना। इस प्रकार (4 ग 3 ग 3) त्र 36 भेद हो गए। इन छत्तीस प्रकारों का पाँच इंद्रियों से सेवन नहीं करना। इस प्रकार (36 ग 5) त्र 180 भेद हो गए।
विषय-भोग उत्पन्न होने वाले दस संस्कारों से दूर रहना। इस प्रकार (180 ग 10) त्र 1800 भेद हो गए। दस संस्कार ये हैं-
(1) शरीर संस्कार, (2) शंृगार संस्कार, (3) अनंग क्रीड़ा, (4) संसर्ग वांछा, (5) विषय संकल्प, (6) शरीर निरीक्षण, (7) शरीर विभूषा, (8) विषय पार्थदान, (9) भोग स्मरण, (10) मनश्ंिचता।
दस संयोग प्रक्रिया और परिणाम से बचना। इस प्रकार (1800 ग 10) त्र 18,000 भेद हो गए। दस संभोग प्रक्रिया और परिणाम ये हैं-
(1) काम चिंता, (2) अंगावलोकन, (3) दीर्घ नि:श्वास, (4) शरीरार्ति, (5) शरीर दाह, (6) मंदाग्नि,
(7) मूर्च्छा, (8) मदोन्मत्तता, (9) प्राण संदेह, (10) शुक्र विमोचन।
प्रश्न 6 : भगवान् ऋषभदेव व महावीर को छोड़कर शेष बाईस तीर्थंकरों के समय क्या ब्रह्मचर्य महाव्रत नहीं था?
उत्तर : भगवान् ऋषभदेव व महावीर ने पाँच महाव्रत रूप धर्म का उपदेश दिया, उसमें ब्रह्मचर्य चौथा है। मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों ने चार याम का उपदेश दिया, उसमें ब्रह्मचर्य नाम से कोई पृथक् याम नहीं है। उनका चौथा याम बहिद्धादान है। उसमें स्त्री और परिग्रह दोनों का समावेश होता है। इस प्रकार चार याम में पाँचों ही महाव्रतों का पालन करते थे। वे मुनि ऋजुप्राज्ञ थे। प्रथम तीर्थंकर के शासनकाल में मुनि ऋजु जड़ व अंतिम तीर्थंकर के वक्र जड़ होते हैं। इसलिए ब्रह्मचर्य-पालन पर सम्यक् जोर देने के लिए सर्व मैथुन विरमण महाव्रत को पृथक् कर पाँच महाव्रत रूप धर्म का उपदेश दिया। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘ब्रह्मचर्य महाव्रत’ जैन परंपरा में एक शाश्वत धर्म के रूप में स्वीकृत रहा। कभी वह पृथक् महाव्रत के रूप में हुआ और कभी बहिद्धादान याम के अंतर्गत।
(क्रमश:)