उपासना

स्वाध्याय

उपासना

भाग - एक

आचार्य हेमचंद्र

सिद्धराज जयसिंह विद्याप्रेमी था। नरेश ने हेमचंद्र को कहा-‘मुनि नायक! लोकोपकार के लिए नए व्याकरण का निर्माण करो। इसमें तुम्हारी ख्याति है और मेरा यश है।’ सिद्धराज जयसिंह का निर्देश पाते ही आचार्य हेमचंद्र ने अपने को इस कार्य के लिए नियोजित किया। हेमचंद्राचार्य के कथन पर सिद्धराज जयसिंह ने कश्मीर प्रदेशांतर्गत प्रवर प्रदेश के भारती कोश से आठ विशाल व्याकरणों की प्रतियाँ मँगवाईं। प्रवर प्रदेश से व्याकरण ग्रंथों के साथ उत्साह नाम के पंडित को भेजा गया था। व्याकरण ग्रंथों का गंभीर अध्ययन कर हेमचंद्राचार्य ने प×चांगपूर्ण उत्तम व्याकरण ग्रंथ को रचा। इस व्याकरण ग्रंथ का नाम ‘सिद्धहेमशब्दानुशासन’ रखा गया जो नरेश सिद्धराज और आचार्य हेमचंद्र के सम्मिलित प्रयत्न का सूचक था।
सर्वांग परिपूर्ण सिद्धहेमव्याकरण को पाकर गुजरात का साहित्य चमक उठा। हाथी के हौदे पर रखकर उस व्याकरण ग्रंथ का राज्य में प्रवेश कराया गया। वैयाकरणों ने इस व्याकरण ग्रंथ का सम्यक् प्रकार से अवलोकन कर इसे प्रमाणित किया। विद्वानों और राजपुरोहितों ने तीन वर्षों तक इसका वाचन किया। तीन सौ लिहियों (लिपिकारों) ने बैठकर उनकी प्रतिलिपियाँ तैयार की। कश्मीर तक के पुस्तकालयों में इस व्याकरण ग्रंथ को सम्मानपूर्वक स्थान प्राप्त हुआ। पाटण नरेश द्वारा बीस प्रतियाँ कश्मीर में प्रेषित की गई थीं।
अंग, बंग, कलिंग, लाट, कर्णाटक, कुंकुण, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, वत्स, कच्छ, मालव, सिंधु, सौवीर, नेपाल, पारस, मुरण्ड, हरिद्वार, काशी, गया, कुरुक्षेत्र, कान्यकुब्ज, गौड, श्री कामरूप, सपादलक्ष, जालंधरी, सिंहल, कौशिक आदि अनेक नगरों में इस व्याकरण-साहित्य का प्रचार हुआ। ये प्राचीन काल में सुप्रसिद्ध नगर थे।
गुजरात के पाठ्यक्रम में भी इसी व्याकरण की स्थापना हुई और उसके अध्यापन के लिए विशेष अध्यापकों की नियुक्ति की गई। उनमे प्रमुख अध्यापक कायस्थ कुल का कवि चक्रवर्ती शब्दानुशासन-शासनाम्बुधि पारद्रष्टा कालक नामक विद्वान् था। वह आठ सुप्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथों का विशिष्ट ज्ञाता था। छात्रों को कालक सम्यक् प्रकार से व्याकरण ग्रंथ पढ़ाता और प्रतिमास ज्ञानपंचमी के दिन उनकी परीक्षा भी लेता था। परीक्षोत्तीर्ण छात्रों को राज्य की ओर से कनक, भूषण, कंकण, रेशमी वस्त्र, सुखासन आतपत्र आदि का पुरस्कार भी दिया जाता था।
हेमचंद्र की प्रवचन शैली भी प्रभावक थी। वे चतुर्मुख जिनालय में नेमिनाथ चरित्र पर व्याख्यान करते। उनके व्याख्यान को सुनने के लिए जैन, जैनेतर सभी प्रकार के लोगों की उपस्थिति रहती थी। पांडव प्रकरण पर ब्राह्मण वर्ग में चर्चा चली। हेमचंद्र ने सिद्धराज जयसिंह के सम्मुख ब्राह्मणों के प्रश्नों का तर्कयुक्त समाधान कर सबको निरुत्तर कर दिया।
पाटण नरेश सिद्धराज जयसिंह का देहावसान वी0नि0 1669 (वि0सं0 1199) में हुआ। उनके स्थान पर सुयोग्य कुमारपाल का राज्याभिषेक हुआ। राजा वास्तव में किसी के मित्र नहीं होते, पर हेमचंद्राचार्य के विशाल एवं उदार व्यक्तित्व के कारण जसयिंह नरेश के साथ उनकी मैत्री अंतिम समय तक बढ़ती ही रही थी।
नरेश कुमारपाल कें सिद्धराज जयसिंह जैसा विद्याप्रेम, कलाप्रेम और साहित्यानुराग नहीं था। वह धार्मिक वृत्ति का अवश्य था। शिव का परम भक्त था। जैनधर्म के प्रति उसके हृदय में गहरी आस्था थी। हेमचंद्राचार्य के व्यक्तित्व से वह अतिशय प्रभावित था। राज्यारोहण के समय कुमारपाल की अवस्था पचास वर्ष की थी और हेमचंद्राचार्य की उम्र चौवन की थी। समवयस्क होते हुए भी उनका संबंध गुरु-शिष्य जैसा था। किसी भी महत्त्वपूर्ण कार्य के संपादन में कुमारपाल हेमचंद्राचार्य की सम्मति को मूल्यवान् मानता था।

(क्रमशः)