उपवास, साधना और आत्मनिरीक्षण का दिवस है संवत्सरी महापर्व: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 31 अगस्त, 2022
भाद्रवा शुक्ला चतुर्थीµसांवत्सरिक महापर्व। जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ का पावन पर्व। साधना के शिखर पुरुष आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि आज भगवान महावीर से संबंध जैन शासन का एक अति महत्त्वपूर्ण दिवस है। दूसरा कोई दिवस इसकी बराबरी में प्रस्तुत किया जा सके, ऐसा ध्यान में नहीं आ रहा। उपवास की प्रधानता है। भोग-विलास का नहीं। आज का दिन तो साधना का, आत्म निरीक्षण का, खान-पान न करने का, तप और संयम का दिवस है। पर्युषण के सात दिन इस पर्व की अगवानी में आते हैं। आज क्षमा का पर्व है। आज का दिन आत्मालोचन- खमतखामणा का मैत्री का दिन है। गुरुदेव तुलसी का गीत ‘आयो जैन जगत रो प्रमुख पर्व संवत्सरी रे’ का सुमधुर संगान किया।
जैन शासन को हमने स्वीकार किया है कि हमारी आत्मा का कल्याण हो सके। अपने-अपने धर्म के विविध विधान हैं। तप-संयम की साधना कोई भी कर सकता है। गृहस्थ जीवन में भी त्याग होना चाहिए। छोटे बच्चों को नवकार मंत्ररूपी हार को कंठे में धारण करना चाहिए। रोज नवकार मंत्र का जाप करना चाहिए। खान-पान की शुद्धि बनी रहे, यह एक प्रसंग से समझाया। श्रावक समाज नशे के सेवन से बचे। हर मनुहार को सविनय अस्वीकार किया जा सकता है। जैन जीवन शैली को अपनाएँ। शनिवार की सामायिक 7 से 8 बजे यथासंभव होती रहे। यह संवत्सरी हमें अच्छी प्रेरणा दे, अच्छी खुराक मिले। भगवान महावीर के सत्ताइसवें भव को समझाते हुए बताया कि भगवान की असली माँ देवानंदा ब्राह्मणी है। दूसरी माँ त्रिशला से प्रसूत हुए। निर्भीक बालक की देव द्वारा परीक्षा भी की गई। वर्धमान सर्प से भी नहीं डरे।
वर्धमान को नौवें वर्ष में पाठशाला भेजा गया। पर वे तो विशिष्ट ज्ञानी थे। वर्धमान की शादी समरवीर राज्य के राजा की पुत्री यशोदा के साथ हो गई। एक संतान का नाम प्रियदर्शना था। दोहित्री भी हो गई नाम था शेषवती। वर्धमान के बड़े भाई नंदी वर्धन एवं बहन का नाम सुदर्शना था। चाचा का नाम सुपार्श था। वर्धमान के माता-पिता अनशन कर देवलोक सिधार गए। अब वर्धमान ने सोचा माता-पिता तो चले गए हैं। पर मोटा भाई तात समान। मेरे दीक्षा लेने का द्वारा खुल गया है। अब मुझे संयम की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। अपने चाचा और बड़े भाई से दीक्षा की अनुमति माँगते हैं।
बड़े भाई के आग्रह पर दो वर्ष और गृहस्थ में वर्धमान रहते हैं। पर घर में रहकर भी साधक का जीवन जीते हैं। बेले-बेले की तपस्या शुरू कर दी। नव लौकान्तिक देवों ने अर्ज की कि अब दीक्षा लीजिए, वर्षीदान कीजिए। बड़े भाई व चाचा दीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। मिगसर कृष्णा दशमी के दिन दीक्षा स्वीकार की। सुगंधित पदार्थों का लेप किया गया। सुंदर वस्त्रालंकार धारण किए। देवनिर्मित विशाल चंद्रप्रभा नाम की पालिका में विराजमान हो गए। वर्धमान शिविर से नीचे उतर वस्त्रालंकारों को उतार दिया। दिन के तीसरे प्रहर में पूर्वाभिमुख होकर वर्धमान पंचमुष्ठी लोचन करते हैं। णमो सिद्धाणं का उच्चारण करते हुए सर्व सावद्य प्रवृत्ति का तीन करण-तीन योग से आजीवन त्याग करते हैं। बेले की तपस्या में दीक्षा ली।
प्रभु वर्धमान ने संकल्प कर लिया अब मैं बारह वर्षों तक शरीर का व्युत्सर्ग करके रहूँगा। जो कोई उपसर्ग पैदा होंगे उन्हें मैं अव्यथित भाव से उदीन मन से तीन योग से सहन करूँगा। उपसर्ग की शंृखला में यहाँ ग्वाले द्वारा उपसर्ग दिया जाता है। देवेंद्र आकर ग्वाले को समझाते हैं। इंद्र ने प्रभु से प्रार्थना की कि आपके साधना काल में उपसर्ग आ सकते हैं। मैं आपकी अनुमति से सुरक्षा के लिए सेवा में रहना चाहता हूँ। ‘मानो प्रभु अर्ज मेरी, सेवा में मैं रह जाऊँ’ गीत का सुमधुर संगान किया।
भगवान तापसों के आश्रम में भी पधारे। यहाँ पाँच संकल्प ग्रहण करते हैं। चंडकौशिक का उद्धार करते हैं। शूलपाणी यक्ष के मंदिर में प्रवास कर उस परिसर को निर्भय बनाते हैं। उस प्रभात काल में प्रभु को मुहूर्त भर नींद आ गई। नींद में 10 स्वप्न देखें। साधना काल में अनेक तपस्याएँ कीं। पाँच माह 25 दिन की अभिग्रह सहित तपस्या की साधिक बारह वर्षों के साधना काल में 349 दिन ही आहार किया बाकी तपस्या में ही बीते। साधना करते-करते तेरहवें वर्ष में जंभियग्राम में ऋजुबालिका नदी के किनारे श्यामा गृहपति का खेत के शाल वृक्ष के नीचे बेले की तपस्या में गौदोहिक आसन दिन का अंतिम प्रहर वैशाख शुक्ला दशमी का दिन विजय मुहूर्त हस्तोतरा नक्षत्र का योग उस समय साधना करते-करते ध्यान की गहराई में जाते-जाते केवलज्ञान, केवलदर्शन की प्राप्ति प्रभु को हो जाती है। वर्षों तक जनोद्धार का कार्य किया और आखिर कार्तिक मास की अमावस्या जिसे दीपावली या महावीर निर्वाण दिवस भी कहते हैं, पावापुरी में नश्वर देह को छोड़कर प्रभु की आत्मा मोक्ष में विराजमान हो जाती है।
भगवान महावीर की परंपरा चलती है। जैन शासन में आचार्यों का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। वर्तमान में भी जैन शासन की परंपरा चल रही है। आचार्यप्रवर ने फरमाया कि संक्षिप्त रूप में मैंने भगवान महावीर के सत्ताईस भव व जीवन काल को बताने का प्रयास किया है। प्रभु की भक्ति करने का मौका मुझे मिला है और मिलता रहे। प्रभु के जीवन से प्रेरणा ले लें तो यह पर्युषण मनाना सार्थ है। तेरापंथ आचार्य परंपरा को संक्षिप्त रूप में फरमाया। मुख्य मुनि महावीर कुमार जी ने कहा कि पर्वाधिराज संवत्सरी एक महान पर्व है। कहा गया कि मंत्रों में नवकार मंत्र श्रेष्ठ है। सब तीर्थों में तीर्थंकर श्रेष्ठ है। दानों में अभयदान सर्वश्रेष्ठ है। गुणों में विनय श्रेष्ठ है। व्रतों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है। नियमों में संतोष श्रेष्ठ है। सब तपों में उपशम तप श्रेष्ठ है। उसी प्रकार पर्वों में यह पर्वाधिराज संवत्सरी महापर्व श्रेष्ठ बताया गया है।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने कहा कि तीन प्रकार की महानता होती हैµनैसर्गिक, अर्जित और आरोपित। युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी में महानता नैसर्गिक है। आपके जीवन को विशिष्ट बनाती है। इनमें विलक्षण विशेशताएँ थीं। पूज्यप्रवर के जीवन प्रसंगों को समझाया। पूज्यप्रवर ने छः प्रहरी पौषध के श्रावक-श्राविकाओं को प्रत्याख्यान करवाए। तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
कार्यक्रम के दौरान अनेक श्रद्धालुओं ने आचार्यश्री से अपनी-अपनी तपस्या उपवास, अष्टप्रहरी, छह प्रहरी, चार प्रहरी पौषध आदि का प्रत्याख्यान किया। इसके उपरांत पूरे दिन अनेक प्रसंगों पर साधु-साध्वियों द्वारा गीत, व्याख्यान के माध्यम से श्रद्धालुओं को आध्यात्मिक प्रेरणा प्रदान करने का कार्य जारी रहा। दोपहर बाद लगभग ढाई बजे पुनः आचार्यश्री प्रवचन पंडाल में पधारे और वहाँ श्रद्धालुओं को विविध पाथेय प्रदान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।