अस्तिकाय का सिद्धांत जैन दर्शन का एक मौलिक और महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 7 सितंबर, 2022
भाद्रवा शुक्ला द्वादशी सप्तमाचार्य परमपूज्य डालगणी का ‘महाप्रयाण दिवस’ और युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी का ‘आज युवाचार्य मनोनयन दिवस’ भी है। आज ही के दिन गंगाशहर में परमपूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने महाश्रमण मुनि मुदित कुमार जी को युवाचार्य महाश्रमण के रूप में अपने उत्तराधिकारी का मनोनयन किया था।आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने अनंतर पट्टधर आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया कि भंते! अस्तिकाय कितने प्रज्ञप्त हैं? उत्तर-गौतम! अस्तिकाय पाँच प्रज्ञप्त हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय।
हमारी दुनिया में जीव और अजीव ये दो तत्त्व हैं। जैन दर्शन द्वैतवादी दर्शन है। उसके दो तत्त्व बताए हैं। इन दो तत्त्वों का विस्तार किया जाए तो पाँच अस्तिकाय भी प्रस्तुत किए जा सकते हैं। छः द्रव्य और नौ तत्त्व भी प्रस्तुत किए जा सकते हैं। जीव और अजीव को सांख्यवादी, द्वैतवादी भी मानते हैं। किंतु अस्तिकाय का सिद्धांत जैन दर्शन का एक मौलिक और महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है। इन पाँच अस्तिकाय के साथ काल को जोड़ा जाए तो छः द्रव्य हो जाते हैं।
प्रश्न है कि अस्तिकाय होता क्या है? अस्ति शब्द के दो अर्थ हैं-त्रैकालिक अस्तित्व और प्रदेश। काय का अर्थ है-राशि समूह। प्रदेश समूह अस्तिकाय होता है। जिन प्रदेशों का अस्तित्व शाश्वत-स्थायी है, त्रैकालिक है। इन पाँच अस्तिकायों में पुद्गलास्तिकाय सबसे अंत में लिया गया है। अमूर्त अमूर्त को पहले बता दिया फिर एकमात्र पुद्गलास्तिकाय मूर्त है, इसलिए इसे अंत में बता दिया गया है। छः द्रव्यों में जीवास्तिकाय को अंत में लिया गया है, कारण प्रथम पाँच द्रव्य अचेतन है, जीव चेतन है। जो पाँच समान हैं, उनको पहले से लिया गया। ये पाँच तो लोक में हैं ही पर आकाशस्तिकाय अलोक में भी हैं। धर्मास्तिकाय कितने वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाला होता है? उत्तर दिया कि ये अवर्ण, अगंध, अरस, अस्पर्श वाला है। धर्मास्तिकाय चारों बातें नहीं होती। अरूपी हैं, अजीव हैं, शाश्वत हैं, अवस्थित हैं और लोक द्रव्य हैं।
लोकाकाश के घटक तत्त्वों में पहला धर्मास्तिकाय होता है। इसलिए इसे लोक द्रव्य कहा गया है। हम सक्षम हैं, तो कार्यकारी बने रहें, यह धर्मास्तिकाय से प्रेरणा ले सकते हैं। अधर्मास्तिकाय ठहरने में सहयोग करता है बाकी सब धर्मास्तिकाय की तरह है। जीव और पुद्गल गति निवृत्ति करते हैं। आकाशस्तिकाय की प्रमाणता लोकालोक परिमाण है। जीवास्तिकाय द्रव्य से अनंत है। बाकी कई बातें धर्मास्तिकाय समान हैं। गुण की दृष्टि से आकाश अवगाहन-स्थान देता है। जीवास्तिकाय का गुण है-उपयोग। चेतना व्यापार उपयोग है। पुद्गलास्तिकाय में भिन्नता है। यह रूपी हैं। द्रव्य से अनंत है, क्षेत्र से लोकप्रमाण है। हमेशा था और हमेशा रहेगा। यह मूर्त है। गुण से यह ग्रहण गुण वाला, गलन-मिलन स्वभाव वाला है। ग्रहण गुण पुद्गलास्तिकाय का स्वभाव है।
ये पाँचों अस्तिकाय हमारे जीवन से भी जुड़े हैं। हमारे उपयोग में आते हैं। ये कुछ बातें भगवती सूत्र के दसवें उद्देश्क में बताई गई हैं जो मैंने बताई हैं। आज भाद्रव शुक्ला द्वादशी है। दो प्रसंग तो संयोजक मुनिजी ने बता दिए। आज के दिन से एक प्रसंग और जुड़ा है। आज के दिन परमपूज्य भिक्षु स्वामी ने संथारा ग्रहण किया था। भिक्षु स्वामी हमारे धर्मसंघ के प्रवर्तक हैं। दूसरा प्रसंग है हमारे धर्म के सप्तम आचार्य पूज्य डालगणी का वार्षिक महाप्रयाण का दिन है। आज के दिन लाडनूं में उनका महाप्रयाण हुआ था। पूज्य डालगणी का मनोनयन पूर्व आचार्य द्वारा न होकर धर्मसंघ के बड़े साधु मुनिश्री कालूजी रेलमगरा द्वारा हुआ। उन्होंने बारह वर्ष तक धर्मसंघ की सेवा की थी। तेजस्वी आचार्य के रूप में वे ख्यातिप्राप्त हैं। ‘करें हम वंदन बारंबार’ गीत का सुमधुर संगान किया। डालगणी को हमारा बार-बार वंदन है। उनकी विशेषताएँ हमारे जीवन में भी उतरें।
तीसरा प्रसंग है-परमपूज्य आचार्य महाप्रज्ञ ने आज के दिन गंगाशहर में वि0सं0 2054 को मुझे अपने उत्तराधिकार की पछेवड़ी धारण करवाई थी। आचार्य महाप्रज्ञ जी का अपना वैदुष्य था, उनकी साधना उत्कृष्ट थी। हमारे धर्मसंघ में दस आचार्यों में सबसे ज्यादा उनका जीवन काल था। उन्होंने भी यात्राएँ की थीं। गुजरात में ‘दो चातुर्मास’ किए तो महाराष्ट्र में दो ‘मर्यादा महोत्सव’ दिए। और भी अनेक जगह चातुर्मास किए। आगम संपादन का भी कितना कार्य किया था। वे अनेक भाषाओं के जानकार थे। उनके योग से आज का दिन जुड़ा है। हम उनका श्रद्धा से स्मरण करते हैं। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। पूज्यप्रवर ने कोंकणवासियों की अर्ज पर मुंबई चातुर्मास के बाद कोंकण क्षेत्र परसने की कृपा करवाई। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि साधु कंचन-कामिनी का त्यागी होता है।