संबोधि
बंध-मोक्षवाद
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(19) नयदृष्टिरनेकांतः स्याद्वादस्तत्प्रयोगकृत्।
विभज्यवाद इत्येष, सापेक्षो विदुषां मतः।।
(क्रमशः) नय का उद्देश्य यह है कि हम दूसरे के विचारों को उसी के अभिप्राय के अनुकूल समझने का प्रयत्न करें तभी हमें उसके कथन की सापेक्षता का ज्ञान होगा। अन्यथा हम उसे समझ नहीं सकेंगे। नय सात हैं-
नैगमनय-द्रव्य के सामान्य-विशेष के संयुक्त रूप से निरूपण करने वाला विचार।
संग्रहनय-केवल सामान्य का निरूपण करने वाला विचार।
व्यवहारनय-केवल विशेष का निरूपण करने वाला विचार।
ऋजुसूत्रनय-वर्तमानपरक दृष्टि। जैसे-तुला उसी समय तुला है जब उससे तोला जाता है। अतीत और भविष्य में तुला तुला नहीं है।
शब्दनय-भिन्न-भिन्न लिंग, वचन आदि के आधार पर शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। जै-पहाड़ का जो अर्थ है वह पहाड़ी शब्द व्यक्त नहीं कर सकता।
समभिरूढ़नय-इसका अभिप्राय यह है कि जो वस्तु जहाँ आरूढ़ है, उसका वहीं प्रयोग करना चाहिए। स्थूलदृष्टि से घट, कुट, कुंभ का अर्थ एक है। परंतु समभिरूढ़नय इसे स्वीकार नहीं करता। वह सब शब्दों में अर्थभेद मानता है।
एवंभूतनय-वार्तमानिक या तत्कालभावी व्युत्पत्ति से होने वाली शब्द की प्रवृत्ति का आशय। जैसे घट उसी समय घट है जो मस्तक पर पानी लाने के लिए रखा हुआ है। घट शब्द भी वही है जो घट-क्रियायुक्त अर्थ का प्रतिपादन करे।
नैगमनय ज्ञानाश्रयी विचार है। जो संकल्प प्रधान होता है वह ज्ञानाश्रयी है। अर्थाश्रयी विचार वह होता है जो अर्थ को मानकर चले। संग्रहनय, व्यवहारनय और ऋजुसूत्रनय-ये तीनों अर्थाश्रयी विचार हैं। शब्दनय, समभिरूढ़नय और एवंभूतनय-ये तीनों शब्दाश्रयी विचार हैं।
इनके आधार पर नयों की परिभाषा यों हो सकती है-
(1) नैगम-संकल्प या कल्पना की अपेक्षा होने वाला विचार।
(2) संग्रह-समूह की अपेक्षा से होने वाला विचार।
(3) व्यवहार-व्यक्ति की अपेक्षा से होने वाला विचार।
(4) ऋजुसूत्र-वर्तमान अवस्था की अपेक्षा से होने वाला विचार।
(5) शब्द-यथाकाल, यथाकारक शब्द प्रयोग की अपेक्षा से होने वाला विचार।
(6) समभिरूढ़-शब्द ही उत्पत्ति के अनुरूप शब्द प्रयोग की अपेक्षा से होने वाला विचार।
(7) एवंभूत-व्यक्ति के कार्यानुरूप शब्द प्रयोग की अपेक्षा से होने वाला विचार।
(क्रमशः)