जीवन में लक्ष्य प्राप्ति के लिए आवश्यक है सम्यक् पुरुषार्थ: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

जीवन में लक्ष्य प्राप्ति के लिए आवश्यक है सम्यक् पुरुषार्थ: आचार्यश्री महाश्रमण

ताल छापर, 12 सितंबर, 2022
जन-जन के उद्धारक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में बताया गया है कि हमारी दुनिया में दो तत्त्व हैं-जीव और अजीव। प्रश्न है कि यह जीव है-इसका पता कैसे चले? जीव का लक्षण क्या है? लक्षण वह होता है जो दूसरों से पृथक कर दे। लक्षण के साथ लक्षणाभास भी आता है। लक्षण जो बताया जाए वो दूसरों में नहीं होना चाहिए। तब वह लक्षण बन सकता है। जीव अपने उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम से युक्त होता है, तब वह अपने आत्मभाव-आत्म प्रवृत्ति से अपने जीव भाव, मैं जीव हूँ इसको प्रकट कर सकता है, ये बात सही है क्या? उत्तर दिया गया-हाँ गौतम ये बात ठीक है कि मैं अपने उत्थान आदि से प्रकट करता हूँ।
जीव अपने आपमें अमूर्त होता है। चैतन्यमय होता है। संसारी जीव शरीरधारी भी होता है। सिद्ध अशरीरी होते हैं। शरीरधारी होने के कारण वो प्राणी हैं, उस रूप में वह मूर्त भी है। उसका चैतन्य अदृश्य रहता है। प्रश्न है कि कैसे जानें कि यह जीव है। जीव है, वह उपयोग लक्षण वाला होता है। जीव में बोधात्मक चेतना-ज्ञान, दर्शन होता है। जीव में ज्ञानावरणीय व दर्शनावरणीय कर्म का कुछ न कुछ क्षयोपशम अवश्य होगा, इनका क्षयोपशम नहीं रहे तो जीव अजीवता को प्राप्त कर लेगा। सिद्ध है या संसारी कोई भी जीव है, उसमें उपयोग होता ही होता है। एकेंद्रिय जीवों में भी मति-श्रुत अज्ञान होता है। हम प्रवृत्ति से पहचान सकते हैं कि यह जीव है। उपयोग लक्षण एकमात्र जीव के सिवाय और किसी में भी नहीं होता है। चेतना की प्रवृत्ति उपयोग है।
अज्ञान के संदर्भ में दो बातें हैं। एक तो मति-श्रुत अज्ञान है एक दूसरा कि यह अज्ञानी आदमी है। एक अज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम भाव होता है। ज्ञान का अभाव या नहीं होना भी अज्ञान होता है। यह ज्ञानावरणीय कर्म का औदयिक भाव है। अज्ञान है, उसमें भी पात्र भेद होता है। मिथ्यात्वी के पास जो ज्ञान है, वो ज्ञान होने पर भी अज्ञान कहलाता है। जीव कहीं भी चला जाए, उसमें उपयोग होता ही, होता है। उपयोग शून्य जीव नहीं हो सकता। वह अजीव होता है।
हम ध्यान दें कि हमारे पास जो ज्ञान-जानकारियाँ हैं, हम उनका उपयोग-प्रयोग करें। ज्ञान का विकास तो अलग-अलग होता है। ज्ञान का दुरुपयोग न हो। हम ज्ञान से समस्या को सुलझा सकते हैं। ज्ञान में तारतम्य हो सकता है। हम अपनी शक्ति का भी सदुपयोग करें। पुरुषार्थ और पराक्रम करें। आदमी सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा जीवन में कुछ पा सकता है। हम सम्यक् पुरुषार्थ करते रहें।
कालूयशोविलास का सुंदर विवेचन करते हुए फरमाया कि पूज्य कालूगणी गंगाशहर में लगभग एक माह विराजते हैं। वहाँ से भीनासर पधारते हैं। शास्त्रार्थ-चर्चा की वहाँ अन्य संप्रदाय से बात चली। आग्रह के लिए चर्चा न हो। ज्ञान बढ़ाने के लिए चर्चा होनी चाहिए। मगन मुनि गुरुदेव की आज्ञा से अगले चातुर्मास प्रवेश की जगह की गवेषणा करने जाते हैं। गुरुदेव भी बीकानेर चातुर्मास हेतु पधार जाते हैं। अनेक प्रकार के लोग होते हैं। दीक्षाएँ भी होती हैं। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि श्रावक की चद्दर को वही सुरक्षित रख सकता है, जो इंद्रिय-संयम जानता हो।