राग के समान दुख नहीं और त्याग के समान कोई सुख नहीं: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 11 अक्टूबर, 2022
करुणावतार परमपूज्य आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि जो सुख आदमी को भीतर से प्राप्त होता है, वह निर्मल सुख हो सकता है और स्थायी भी बन सकता है। दो प्रकार के सुख होते हैं। एक सुख भौतिक पदार्थजन्य अथवा परिस्थितिजन्य होता है वह अस्थायी होता है। जो आत्मा से मिलने वाला सुख होता है, वह निर्मल होता है। आत्मिक-सुख स्थायी बन सकता है। एक भीतर से मिलने वाला सुख और दूसरा बाहर से मिलने वाला सुख होता है। साधना और अध्यात्म से जो सुख मिलता है वह आंतरिक आध्यात्मिक सुख होता है। साधन वाला सुख अस्थायी और साधना से मिलने वाला सुख स्थायी होता है। संतोष को परम सुख बताया गया है। जहाँ चाह-कामना है वो दुःख की राह है। चाह मुक्ति दुःख मुक्ति होती है। ये दो प्रकार के सुख हो जाते हैं।
हम जितना-जितना बाह्य सुखों से विरक्त बनेंगे, भीतर की ओर आगे बढ़ेंगे, तो आंतरिक सुख प्राप्त हो सकता है। जैसे-जैसे हम उत्तम तत्त्व को प्राप्त करते हैं, हमारी ज्ञान-चेतना में उत्तम तत्त्व आता है, उत्तम जागरण होती है, वैसे-वैसे बाह्य विषय (शब्द, गंध, रूप आदि) से अरुचि हो जाती है। उत्तम तत्त्व की प्राप्ति होती है। सुख और दुःख का कारण या बंध और मोक्ष का कारण मन ही होता है। विषयासक्त मन है, तो वह बंधकारक हैं। निर्विषय मन है, वह मोक्ष को दिलाने वाला होता है। बंधन असली सुख नहीं है, मुक्ति असली सुख है। हम ज्यों-ज्यों मुक्ति की ओर आगे बढ़ते हैं, असली सुख को प्राप्त करते जाते हैं।
एक मिट्टी का लड्डू है, एक मिठाई का लड्डू है। असली सुखों की प्राप्ति के लिए त्याग, संयम, वैराग्य अपेक्षित होती है। संतोष से सुख मिलता है। राग के समान दुःख नहीं है और त्याग के समान सुख नहीं है। त्याग-संयम का रास्ता हैµमन पर विजय पाना। मन से आदमी सुखी या दुखी बन सकता है। मानसिक प्रमाद से दुःख बढ़ता है। जहाँ अप्रमाद है, वहाँ सुख है। जैसे सूर्य के सामने सर्दी नहीं टिकती, वैसे मन के संयम के आगे दुःख चला जाता है। भौतिक सुख मृगमरीचिका है। जीवन में पदार्थों का त्याग व इच्छाओं का परिसीमन बढ़े। हमारा ध्यान गहनों-कपड़ों जैसी छोटी चीजों में न उलझे। हमने जीवन में क्या पाया? हमारे जीवन में त्याग-संयम बढ़े ये चीजें महत्त्वपूर्ण हैं। बाह्य दृष्टि वाला छोटी चीजों को महत्त्व देता है। आंतरिक दृष्टि वाले के सामने छोटी चीजों का महत्त्व नहीं। भीतर के गुणों के आभूषण पहनें।
आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृतिµ‘कैसे पाएँ मन पर विजय’ जैविभा द्वारा पूज्यप्रवर को लोकार्पित की गई। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने भी इस पुस्तक के संदर्भ में अपनी अभिव्यक्ति दी। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने कहा कि दसवेंआलियं सूत्र में कहा गया है कि सब जीव जीना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता। व्यक्ति सुखपूर्वक, जीना चाहता है। सबको दुःख अर्पित लगता है। जो मिला उसी में रहना वास्तविक सुख है। सुख के कई प्रकार हो सकते हैं। जब व्यक्ति मूलभूत आवश्यकताएँ प्राप्त कर लेता है, तो उसे सुख प्राप्त हो जाता है। एक व्यक्ति अंतर में सुख प्राप्त करता है, तो उसे अलौकिक सुख की प्राप्ति होती है। मुनि दिनेश कुमार जी ने कार्यक्रम का संचालन करते हुए समझाया कि जो व्यक्ति चार गतियों से छुटकारा पाना चाहता है, तो उसे चारित्र स्वीकार करना होगा।