मुक्ति की प्राप्ति के लिए चंचलता को मिटाना आवश्यक: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

मुक्ति की प्राप्ति के लिए चंचलता को मिटाना आवश्यक: आचार्यश्री महाश्रमण

नवदीक्षित चारित्रात्माओं को आचार्यप्रवर ने प्रदान की बड़ी दीक्षा

47वाँ राष्ट्रीय महिला मंडल अधिवेशन

ताल छापर, 16 सितंबर, 2022
दिव्य शक्ति के भंडार आचार्यश्री महाश्रमण जी ने 9 सितंबर को नवदीक्षित एक मुनि व तीन साध्वियों को छेदोपस्थापनीय चारित्र स्वीकार कराते हुए पाँच महाव्रत एवं रात्रि भोजन विरमण व्रत को अलग-अलग विस्तार कर समझाया। सभी नवदीक्षितों ने छेदोपस्थापनीय चारित्र स्वीकार किया। भगवती सूत्र की व्याख्या करते हुए महामनीषी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रसंग आया है, प्रश्न किया गया कि क्या जीव सदा- प्रतिक्षण ऐजन, वेजन, चलन, स्पंदन, घटन, क्षोभ और उदिर्णा को प्राप्त होता है तथा उस भाव परिणाम में परिणित होता है?
भगवान ने उत्तर दिया-हाँ मंडित पुत्र जीव सदा प्रतिक्षण उन सबको प्राप्त होता है और उस भाव परिणाम में परिणित होता है। जीव में प्रवृत्ति चंचलता रहती है। उस चंचलता में उस जीव के अंतक्रिया हो सकती है क्या? उत्तर दिया गया यह संभव नहीं है। जब तक प्रवृत्ति चालू रहती है, तब तक अंतक्रिया नहीं हो सकती। अंतक्रिया यानी सारे कर्मों का क्षय हो जाना, मुक्ति प्राप्त हो जाना। चंचलता या प्रवृत्ति न रहे तो अंतक्रिया हो सकती है क्या? उत्तर दिया गया हाँ ये हो सकता है। सर्वकर्म नाश और मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है। जो जीव मोक्ष में जाने वाला है, उसके अंतक्रिया कैसी होती है। उसके लिए पहली बात है-वीतराग अवस्था को प्राप्त होना। बंध की दो क्रियाएँ हैं-सांप्रयिकी और ऐर्यापथिक। पहले से दसवें गुणस्थान
तक सांप्रयिकी होती है। ग्यारहवें , बारहवें और तेरहवें गुणस्थान ऐर्यापथिक बंध होता है। वीतराग अवस्था में जो बंध होता है, वो ऐर्यापथिक कहलाता है। सांप्रयिक अवस्था में जीव में कषाय विद्यमान रहता है। ऐर्यापथिक बंध में एकमात्र सात वेदनीय कर्म का बंध होता है। वह भी हल्का-फुल्का, पहले समय में बंधा, दूसरे में वेदन हुआ और तीसरे में झड़ गया। सक्रियता की अवस्था में अंतक्रिया नहीं होती। दूसरा प्रस्थान है-सक्रियता से पूर्णतया अक्रियता में आ जाना। कुछ समय में अंतक्रिया की स्थिति पैदा हो जाती है। सारे कर्म झड़ जाते हैं। आचार्यप्रवर ने कर्म झड़ने की प्रवृत्ति को तीन उदाहरण से समझाया।
योग निरोध होता है, तब उस अवस्था में जल्दी ही अंतक्रिया होती है। शेष चारों अघाति कर्मों का नाश हो जाता है, आत्मा मोक्ष में चली जाती है। इस तरह अंतक्रिया को समझाया गया है। सारांश यह है कि जीव में प्रवृत्ति होती है, जब प्रवृत्ति बंद हो निवृत्ति आती है। अक्रिया की स्थिति आती है। साधु बनकर-वीतराग बनना पड़ेगा। सम्यक्त्व आना भी जरूरी है। चौदहवें गुणस्थान में आते ही अंतक्रिया समाप्त हो जाती है, जीव मोक्ष चला जाता है। यह चरम साधना प्रवृत्ति का प्रकरण है। पूज्यप्रवर ने नवदीक्षितों को आगम पठन की प्रेरणा दिलाई। अंतक्रिया से पहले सद्क्रिया करनी होगी। संयमपूर्ण क्रिया होती रहे। अयोग संवर की आंशिक प्राप्ति हो सकती है। जीवन में संतोष, शांति, कषायमंदता, विनय भाव रहे। पाँच महाव्रतों की सुरक्षा करना आवश्यक है।
आचार्यश्री के मंगल उद्बोधन के उपरांत अभातेममं की अध्यक्षा नीलम सेठिया ने अधिवेशन के संदर्भ में जानकारी प्रस्तुत की। मुख्य ट्रस्टी पुष्पा बैंगानी व अध्यक्ष द्वारा पूज्यप्रवर के समक्ष प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया। कार्यक्रम में अभातेममं की ओर से डॉ0 माणकबाई कोठारी को श्राविका गौरव अलंकरण, डॉ0 मोनिका जैन व ऐश्वर्या नाहटा को सीतादेवी सरावगी प्रतिभा पुरस्कार प्रदान किया। प्रशस्ति-पत्रों का वाचन क्रमशः सुमन नाहटा, वीणा बैद व सुनीता जैन ने किया। पुरस्कार और अलंकरण प्राप्तकर्ताओं ने अपनी श्रद्धासिक्त अभिव्यक्ति दी। इस संदर्भ में साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने भी अपना उद्बोधन दिया। तदुपरांत आचार्यश्री ने अधिवेशन के संदर्भ में मंगल आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा कि अभातेममं का धार्मिक/सामाजिक संगठन है। इससे तेरापंथ की बाइयों के विकास का मंच मिल गया है। इनका एक बड़ा नेटवर्क है। बाइयों में तत्त्वज्ञान का विकास हो रहा है, यह अच्छी बात है। सम्मान-पुरस्कार प्रदान करना भी अच्छी बात होती है। सभी पुरस्कारप्राप्तकर्ताओं का जीवन अच्छा रहे, सबके प्रति मंगलकामना तथा अभातेममं भी अपना धार्मिक-आध्यात्मिक विकास करती रहे। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।