भगवती सूत्र और पन्नवणा सूत्र तत्त्वज्ञान का खजाना है: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 15 सितंबर, 2022
ऊर्जा के महान भंडार आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि साधु में भद्रता, सरलता हो। मंडित पुत्र ने भगवान की पर्युपासना करते-करते भगवान से प्रश्न पूछा-भंते! क्रियाएँ कितनी प्रज्ञप्त हैं? उत्तर दिया गया-पाँच क्रियाएँ प्राप्त हैं। कायिकी, आधिकरणीकी, प्राद्वोषिकी, पारितापिनी और प्राणिपातिनी क्रिया। हिंसा दुनिया में चलती है, कहीं युद्ध भी होता है। हिंसा एक प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति कराने में वृत्ति का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। हिंसा का भी एक परिवार है। ये पाँच क्रियाएँ हिंसा के परिकर हैं। हिंसा से अविरति है, भाव नहीं है यह इसका मूल है। इंद्रिय और विषय के रूप में काया की क्रिया कायिकी प्रवृत्ति है। आधिकरण या निशस्त्र होगा तो उसके माध्यम से हिंसा होगी।
शस्त्रों का निर्माण करना भी अधिकरणी की प्रवृत्ति है। हिंसा करने के लिए द्वेष-आक्रोश भी चाहिए। क्रोध की क्रिया प्राद्वोषिकी की क्रिया हो जाती है। ये तीन प्रवृत्तियाँ तो पृष्ठभूमि हो गई। चौथी क्रिया है-पारितापिनी की और पाँचवीं है प्राणतिपातिनी क्रिया। पीड़ा पहुँचाना पारितापिनी क्रिया है। जान से मार देना प्राणातिपात क्रिया है। यह हिंसा की अंतिम क्रिया है। इन क्रियाओं के संदर्भ में प्रश्न पूछा गया कि भंते! पहले क्रिया होती है और बाद में वेदना होती है या पहले वेदना होती है, बाद में क्रिया? उत्तर दिया गया कि पहले क्रिया होती है, बाद में वेदना होती है। क्रिया और वेदना में कारण-कार्य का संबंध है। क्रिया से कर्मबंध होता है। वेदना से अनुभव होता है। क्रिया बीज है, वेदना उसका फल है।
अहेतुकवादी कहते हैं कि हेतु के बिना भी दुःख हो जाता है। परिस्थितिवादी कहते हैं कि दुःख परिस्थितिजन्य होता है। ऐसी अनेक मान्यताएँ हैं। हमारी मान्यता है कि पहले क्रिया होगी, कर्म बंध होगा, पाप करेंगे बाद में उसका फल मिलेगा। क्रिया कारण है, दुःख उसका फल है, कार्य है। क्रिया का अर्थ है आश्रव और वेदना का अर्थ है कर्म का बंध। इस तरह अनेक तात्त्विक बातें भगवती सूत्र में हैं। तत्त्वज्ञान की दृष्टि से हम आगमों में देखें, पन्नवणा सूत्र तत्त्वज्ञान का खजाना है। गुरुदेव तुलसी और आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने आगमों का अनुवाद, भाष्य, संपादन आदि किया है, हम उन आगमों का अध्ययन करें। क्रिया को पढ़कर हम हिंसा-अशुभ योग से बचने का प्रयास करें। क्रिया लगाने में हम अक्रिय बनें।
साध्वी धर्मयशा जी की स्मृति सभा परमपूज्य ने साध्वी धर्मयशा जी का परिचय दिया। वे बीदासर के गोलछा परिवार से थी। गुरुदेव तुलसी के मुख कमल से 22 वर्ष की उम्र में दीक्षित हुई थी। उन्होंने प्रायः आगम बत्तीसी का अध्ययन किया था। वे कला से भी निपुण थी। स्वास्थ्य की अनुकूलता न रहने के कारण उन्हें सेवा केंद्र में रहना पड़ा था। स्वास्थ्य लाभ के लिए जयपुर भेजा गया था। पर वहाँ पर कालधर्म को प्राप्त हो गई। उनके प्रति मध्यस्थ व मंगलभावना रूप में पूज्यप्रवर ने चार लोगस्स का ध्यान करवाया।
मुख्य मुनि महावीर कुमार जी, साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी, साध्वी जिनप्रभा जी, साध्वी अमितप्रभा जी, साध्वी जगवत्सला जी, साध्वी नयश्री जी, साध्वी शुभ्रयशा जी ने साध्वी धर्मयशा जी के प्रति अपनी मंगलभावना, आध्यात्मिक मंगलकामना के रूप में अपने उद्गार अभिव्यक्त करवाए।
बीदासर सभा अध्यक्ष विमल लिंगा, चंदा गिड़िया ने भी अपनी मंगलभावना अभिव्यक्त की। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। गौतम सेठिया, तिरुवन्नामलै की स्मृति में उनके परिवार द्वारा स्मृति पुस्तक पूज्यप्रवर के श्रीचरणों में भेंट किया गया। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया। गौतम के पुत्र गणेश ने अपनी भावना अभिव्यक्त की।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।