सम्यक् अर्थ जानने के लिए भाषाई ज्ञान के साथ सारस्वत साधना भी अपेक्षित: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 25 सितंबर, 2022
संबोधि प्रदाता, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने भगवती सूत्र की विवेचना करते हुए फरमाया कि प्रश्न पूछा गया है कि भंते! देवता किस भाषा में बोलते हैं? बोली जाने वाली कौन-सी भाषा विशिष्ट होती है? गौतम के नाम उत्तर दिया गया कि देव अर्द्ध-मागधी भाषा में बोलते हैं। और वे अर्द्ध-मागधी भाषा बोली जाने वाली विशिष्ट होती है।
भाषा जगत में अनेक भाषाएँ हैं। विश्व में व भारत में कितनी भाषाएँ चलती हैं। मेरे मन में एक बात आई है कि दुनिया में इतनी भाषाएँ क्यों? इतनी भाषाएँ होने से थोड़ी जटिलता हो गई। अनेक भाषाएँ हैं, तब अनुवाद करना पड़ता है। दुनिया में एक ही भाषा होती तो फिर अनुवाद करने की संभवतः अपेक्षा ही नहीं पड़ती। कितना समय बच जाता। कितनी भाषाएँ पढ़नी पड़ती हैं, परिश्रम करना पड़ता है।
भाषा की अपेक्षा विषय को पढ़ने में ज्यादा समय लगाएँ तो ज्ञान अच्छा हो सकता है। भाषा तो विषय को जानने का और प्रस्तुत करने का माध्यम मात्र है। जैन श्वेतांबर तेरापंथ परंपरा में बत्तीस आगम मान्य हैं। इनकी भाषा अर्द्ध-मागधी, प्राकृत है। सीधा इस भाषा में अर्थ ग्रहण करना कठिन है। अनुवाद की अपेक्षा रहती है। एक शब्द के अनेक अर्थ हो सकते हैं। वक्ता ने उस समय कौन से शब्द का क्या अर्थ प्रयोग किया है, वहाँ तक अनुवादक पहुँच जाए तो अर्थ अच्छा हो सकता है। अन्यथा गलत अनुवाद हो सकता है। अनुवादक को दोनों भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए। किस भाषा में किस भाषा का अनुवाद करना है। भाषा के ज्ञान के साथ-साथ कुछ-कुछ सारस्वत साधना होती है, वो लेखक और व्याख्याता से तादातम्य स्थापित कर ले। कहाँ क्या अर्थ हुआ है, उसको पकड़ने की चेष्टा हो। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी की पुस्तक ‘श्रमण महावीर’ में वर्णन है कि मैंने देवर्द्धिगणी से संपर्क किया, भगवान महावीर से संपर्क किया वो वाक्य है।
प्रबुद्ध पाठक हो तो मन में प्रश्न पैदा हो सकता है कि महाप्रज्ञ जी ने मोक्ष में गए भगवान महावीर से कैसे संपर्क किया? बात तो थोड़ी अनुत्तरित हो सकती है। लेखन की शैली भी हो जाए, इसके साथ-साथ इस संदर्भ में थोड़ी सारस्वत साधना वो होती है। लिखने वाले का आशय मालूम करना होता है तो अनुवाद में सच्चाई आ सकती है। अनुवाद करने वाला लेखक के साथ किसी रूप में तादातम्य भी स्थापित करे कि इसका क्या अर्थ होना चाहिए? अनुवाद करते समय एक वाक्य को समझने में कई दिन लग सकते हैं। प्रामाणिक गहरा अनुवाद करने में समय लग सकता है। खोज करता रहता है। यह एक कला, सारस्वत साधना की बात हो सकती है। योग साधना गहराई से जुड़ी बात हो सकती है कि कैसे गहराई से उसका तात्पर्य समझकर अनुवाद करना।
जो गहरे ग्रंथ हैं, उनका अनुवाद करने को भी मैं एक साधना मानता हूँ। आचार्य महाप्रज्ञ जी साधारण आदमी नहीं थे। उन्होंने जो आगम का कार्य किया है, उसमें उनका वैदुष्य भी था। प्रज्ञा व सारस्वत साधना साथ में जुड़ जाती है, तो ये अनुवाद-टिप्पण का अच्छा कार्य हो सकता है। प्रौढ़-यथार्थ अनुवाद हो सकता है।
वैदिक साहित्य में संस्कृत भाषा को देव भाषा कहा गया है। जिस भाषा में प्राकृत और मागधी दोनों लक्षण मिलते हैं, वह भाषा अर्द्ध-मागधी भाषा होती है। तीर्थंकर जिस भाषा में बोलते हैं, उसकी एक बड़ी विशेषता है कि उस भाषा को श्रोता अपनी-अपनी भाषा में ग्रहण कर लेते हैं। आज तो विज्ञान भवन आदि में व्यवस्था हो गई है कि अपनी-अपनी भाषा में सुन लो। भाषा का भाग्य है कि प्राचीन में अनेक भाषाओं के ग्रंथ उपलब्ध हैं और उनका अनुवाद करके सामने लाया जाता है। अनुवादकों का भी अपना भाग्य होता है। हमारे आगमों में सबसे बड़ा भगवती सूत्र है, जो बड़ा महत्त्वपूर्ण है। अनुवाद करना साहित्य जगत की, ज्ञान जगत की एक सेवा होती है। दूध-दूध ही रहे, पानी मिला न हो। प्रूफ मिस्टेक भी न हो।
आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी की एक पुस्तक ‘अनवेल योर ग्रेटनेस’ का अंग्रेजी अनुवाद सुधामहि रघुनाथन ने किया है, पूज्यप्रवर को उपरित की गई। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया। सुधामहि रघुनाथन ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने कहा कि व्यक्ति के जीवन में गुण भी होते हैं और अवगुण भी रहते हैं। व्यक्ति को अपने अवगुणों को छोड़ना है। विकास करना है। विकास करने वाला व्यक्ति अपने जीवन के बारे में यह संकल्प करता है कि मुझे प्रसन्न रहना है। जो व्यक्ति प्रसन्न रहता है, वो व्यक्ति हर क्षेत्र में आगे बढ़ सकता है। साध्वीप्रमुखाश्री ने सुधामहि रघुनाथन को उक्त पुस्तक के लिए आशीर्वचन कहे। रघुनाथन ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।