वीतरागता की साधना में हँसना भी बाधक तत्त्व है: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

वीतरागता की साधना में हँसना भी बाधक तत्त्व है: आचार्यश्री महाश्रमण

ताल छापर, 21 सितंबर, 2022
परम दयाल परम कृपाल आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया कि छद्मस्थ मनुष्य हँसता है, उत्सुक होता है क्या? उत्तर दिया गया-गौतम के नाम कि वह हँसता है, उत्सुक होता है। अगला प्रश्न किया गया कि क्या केवलज्ञानी भी हँसता है, उत्सुक होता है? उत्तर दिया गया-नहीं यह अर्थ संगत नहीं है। हँसना भी आखिर साधना में बाधक तत्त्व बनता है। उत्सुकता जो अवांछनीय रूप में होती है, वह भी साधना का एक बाधक तत्त्व है। वीतरागता की साधना में हँसना भी बाधक तत्त्व है। उत्सुकता होना भी वीतरागता में बाधक हो सकता है। छठे गुणस्थान तक का छद्मस्थ व्यक्ति ही हँसता है। आगे वाला हँसता नहीं है।
कब हँसना और कैसे हँसना उस पर ध्यान दिया जा सकता है। हँसने-हँसने में भी फर्क पड़ता है। चलते-चलते आदमी गिर भी सकता है। तुच्छ आदमी तो गिरते हुए को देखकर हँस सकता है, पर सज्जन आदमी गिरते हुए को संभालता है। उसकी सेवा-सुश्रुषा करता है। हँसना तो साधारण बात हो गई। बोलते-बोलते भी अगर आदमी भूल से दूसरी बात बोल दे तो हँसना नहीं चाहिए। कर्मों के योग से या तंत्र में गड़बड़ी से किसी को बोलने में गड़बड़ी होती है। एक ही अक्षर को बार-बार बोलता है कबई आती है, उसको देखकर आदमी हँसे तो यह उत्तम बात नहीं होती। उसकी बात को ध्यान देकर बात को समझने की चेष्टा करें।
चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से आदमी हँसता है। हँसने पर हमें नियंत्रण रखना चाहिए, दूसरे को कष्ट पहुँचे या मजाक रूप में हमें नहीं हँसना चाहिए। कई बार आदमी पूरा बोले बिना ही स्वयं हँसने लगता है। बिना बोले या पूरा न बोले बिना हँसने वाला मूर्ख आदमी होता है। छद्मस्थ की छद्मस्थता कितने स्तर की होती है। इस पर विवेचन किया जा सकता है। हँसना कई प्रकार का हो सकता है। यदि विशेष स्तरीय आदमी बैठे हों और उनके पास जोर-जोर से हँसें तो बढ़िया बात नहीं। कहाँ हँसना, कहाँ नहीं हँसना ये विवेक रखें। यह एक व्यवहार का सूत्र है। आदमी का व्यवहार गरिमापूर्ण हो। सामायिक के दौरान गृहस्थ नाटक-आदि न देखें। हास्य कवि सम्मेलन आदि में सामायिक न करें। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने कहा कि आदमी के जीवन में अहिंसक चेतना का विकास होना चाहिए। इससे आवेश और आवेग पर नियंत्रण होता है, शांत रहता है। अहंकार भी शांत हो जाता है। उस व्यक्ति में करुणा-संवेदना की चेतना जागृत हो जाती है। अहिंसा होने से आदमी के मन में आत्मोप्य की भावना रहती है। कन्हैयालाल पटावरी जैन साहब ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। अभातेयुप अध्यक्ष पंकज डागा ने जैन संस्कारक सम्मेलन की जानकारी दी। जैन संस्कारकों ने गीत की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।