पर्युषण महापर्व है जीवन में स्वस्थ और आत्मस्थ होने का दुर्लभ अवसर

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पर्युषण महापर्व है जीवन में स्वस्थ और आत्मस्थ होने का दुर्लभ अवसर

पाली।
तेरापंथ भवन में पर्युषण महापर्व का शुभारंभ करते हुए मुनि तत्त्वरुचि ‘तरुण’ ने कहा कि पर्युषण महापर्व जीवन में स्वस्थ और आत्मस्थ होने का दुर्लभ अवसर है। इसमें व्यक्ति क्रोध, मान, भाषा, लाभ, राग-द्वेष, मोह, आसक्ति, निंदा, चुगली, घृणा आदि अशुभ क्रियाओं से मुक्त होने की साधना की जाती है। इस अवसर पर सैकड़ों की संख्या में श्रावक-श्राविकाएँ उपस्थित थे।
प्रथम दिवस खाद्य संयम दिवस पर मुनि संभव कुमार जी ने कहा कि साधना की पहली शर्त है-खाद्य संयम। इसके बिना धर्म की साधना संभव नहीं। उन्होंने कहा कि भौतिकवादी युग में भोगवाद का बोलबाला अधिक है। हमारा जितना ध्यान खाने-पीने पर है, उतना धर्मध्यान पर नहीं है। उन्होंने बताया कि आज खाने-पीने का असंयम अस्वस्थता का बड़ा कारण है। स्वस्थ रहने के लिए खाने का लंघन अथवा खाने का संयम जरूरी है। मुनिश्री ने कहा कि शरीर में ताकत गरिष्ठ खाने से नही बल्कि पचाने से आती है। इस अवसर पर सैकड़ों लोगों ने उपवास, एकासन, खाद्य संयम आदि के संकल्प लिए।
पर्युषण महापर्व के दूसरे दिन स्वाध्याय दिवस पर मुनि तत्त्वरुचि जी ने कहा कि स्व को जानना ही सबसे बड़ा स्वाध्याय है। मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? कहाँ जाना है? इन सबका उत्तर स्वाध्याय से प्राप्त होता है। मुनिश्री ने कहा कि शास्त्र के अनुसार स्वाध्याय के पाँच प्रकार हैं-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा, सत्साहित्य का अध्ययन करना, तत्त्व के बारे में पूछना, प्राप्त ज्ञान को दोहराना, धर्म चिंतन-मंथन करना, उपदेश देना आदि क्रियाएँ स्वाध्याय कहलाती हैं। मुनिश्री ने आगे कहा कि स्वाध्याय के समान दूसरा नहीं है। स्वाध्याय सर्वोत्तम तप है।
पर्युषण पर्व के तीसरे दिन तेरापंथ युवक परिषद के बैनर तले ‘अभिनव सामायिक’ की साधन करवाई गई। जिसमें लगभग 500 श्रावक-श्राविकाओं ने भाग लिया। सामायिक दिवस विषय पर मुनि तत्त्वरुचि जी ने कहा कि जीवन सुख-शांति, संतुलन व समाधी पाने की साधना है-सामायिक। असंतुलन आज की सबसे बड़ी समस्या है। न जीवन में संतुलन है, न व्यवस्था में। चारों ओर असंतुलन के कारण समस्या विकट होती जा रही है। मुनिश्री ने कहा कि समता को साधक लेने से सारी समस्याएँ हल हो सकती हैं।
मुनि संभवकुमार जी ने कहा कि अच्छा जीवन जीने का सूत्र है-हम हर स्थिति में शांत रहें। शांत रहने के लिए जीवन में समता का अभ्यास जरूरी है। सामायिक समता की साधना है। इससे व्यक्ति सुख-दुःख में, मान-अपमान में, निंदा-प्रशंसा में, लाभ-अलाभ में और जीवन-मरण में सम रह सकता है। उन्होंने कहा कि सामायिक धर्म है। यह केवल धर्म स्थानों तक सीमित न रहे। आचरण और व्यवहार में आना चाहिए। इससे आत्मकल्याण और परकल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
पर्युषण महापर्व के चौथे दिन ‘वाणी संयम दिवस’ के विषय में अपने विचार व्यक्त करते हुए मुनि तत्त्वरुचि जी ने कहा कि ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ ताकि कोई समस्या पैदा न हो। वाण्ी समस्या भी है तो समाधान भी है। सोच-समझकर बोलना समाधान है। बिना सोचे समझे बोलना समस्या पैदा कर सकता है।
मुनिश्री ने कहा कि वाणी हमारे व्यक्तित्व का दर्पण है। इससे व्यक्ति की पहचान होती है। वह उच्च कुल का है या नीच कुल का है। अतः वाणी में हम अच्छे और ऊँचे शब्दों का प्रयोग करें। नीची भाषा निम्नता की परिचायक है। मुनिश्री ने कहा कि हमारी वाणी इष्ट, मिष्ट और शीष्ट हो। वह स्व और पर-कल्याणी है।
मुनि संभव कुमार जी ने कहा कि वाणी विकास का आधार है। वाणी से ही संबंधों का विस्तार होता है। समाज का भी निर्माण होता है। पशुओं में विकास नहीं होने का कारण है-स्पष्ट वाणी का अभाव। उन्होंने कहा कि वाणी से कल्याण और नुकसान दोनों संभव है। वाणी अमृत भी है, जहर भी है। विवेक रहित वाणी का प्रयोग अभिशाप है। विवक सहित वाणी का व्यवहार वरदान है।
पर्युषण महापर्व के पाँचवें दिन ‘अणुव्रत चेतना दिवस’ पर मुनि तत्त्वरुचि जी ने कहा कि अणुव्रत मानवीय अच्छाइयों का गुलदस्ता है। जिसे स्वीकार करने से जीवन सुरभित और सुशोभित होता है। उन्होंने कहा कि अणुव्रत में वे सारी अच्छाइयाँ समाहित हैं जो एक अच्छे सच्चे इंसान के लिए जरूरी हैं। मुनिश्री ने कहा कि भगवान महावीर अणुव्रत के प्रवर्तक थे। आचार्य तुलसी ने अणुव्रत को जन-जन तक फैलाने के लिए एक आंदोलन का रूप दिया। इसलिए आचार्य तुलसी अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तक कहलाए। उन्होंने कहा कि वर्तमान की ज्वलंत समस्याओं का सटीक समाधान है-अणुव्रत। इसीलिए अणुव्रत आज अधिक प्रासंगिक है। मुनि संभव कुमार जी ने कहा कि अणुव्रत आत्म विकास और जीवन सुधार का सच्चा मार्ग है। भगवान महावीर ने साधु-साध्वियों के लिए महाव्रत और श्रावक-श्राविकाओं के लिए अणुव्रत का विधान किया है।
पर्युषण पर्व के छठे दिन ‘जप दिवस’ पर आयोजित कार्यक्रम में मुनि तत्त्वरुचि जी ने कह कि जन्म-मरण और पाप से मुक्ति दिलाता है-जप। जप भक्ति का मार्ग है। भक्ति से शक्ति का जागरण होता है। जप में मंत्र का नाद होता है। नाद से जीवन बदलता है। अर्थात् जप बदलाव की प्रक्रिया भी है। उन्होंने कहा कि शक्ति सपन्न बनने और स्वस्थ होने का अमोघ साधन है मंत्र जप। मुनिश्री ने मंत्र जप के लाभ की चर्चा करते हुए कहा कि मन की चंचलता कम होती है। निर्बल मन सबल बनता है। एकाग्रता का भी विकास होता है। उन्होंने बहाया कि मंत्र साधना आसुरी शक्तियों पर विजय पाने और दैविक शक्तियों को जगाने का अहम प्रयोग है। मुनि संभव कुमार जी ने कहा कि निर्भयता, निरामयता और निर्विकारता के विकास का मार्ग है-जप।
पर्युषण पर्व के सातवें दिन ‘ध्यान दिवस’ पर मुनि तत्त्वरुचि जी ने कहा कि ध्यान तनावमुक्ति और सुख-शांति की प्राप्ति का साधन है। उन्होंने कहा कि ध्यान के बिना अंतर्दृष्टि का जागरण नहीं होता। अंतर्दृष्टि के बिना प्रज्ञा का-अवतरण नहीं होता। धर्म की समझ और उसकी समीक्षा प्रज्ञा के द्वारा पैदा होती है। मुनिश्री ने कहा कि ध्यान अतीन्द्रिय चेतना के जागरण का भी माध्यम है। ध्यान धर्म का प्रयोग है। इसके द्वारा धर्म की असलियत का अनुभव कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि इच्छित परिणाम के लिए ध्यान की प्रक्रिया का सम्यक् ज्ञान अपेक्षित है।
पर्युषण पर्व के अंतिम दिन संवत्सरी दिवस पर मुनि तत्त्वरुचि जी ‘तरुण’ ने कहा कि संवत्सरी महापर्व आत्मा की आराधना का शिखर दिन है। यह जैन धर्म का प्रमुख आध्यात्मिक पर्व है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति को अंतर्मुखी बनकर आत्मदर्शन करने का प्रयास करना है। स्वयं के द्वारा स्वयं की खोज करना ही मुख्य ध्येय होता है। इस अवसर पर बड़ी संख्या में श्रावक-श्राविकाओं ने उपवास एवं पौषध करके आत्माराधना की। मुनि संभव कुमार जी ने कहा कि वैर विरोध आत्म विकास के बाधक हैं। साधक सब जीवों के प्रति मैत्री का भाव रखें। संयम, समता, सहनशीलता, क्षमा, आत्मोत्थान का मार्ग है।
पर्युषण पर्व के समापन पर आयोजित मैत्री पर्व पर मुनि तत्त्वरुचि जी ने कहा कि क्षमा अमृत है और क्रोध, वैर, विरोध, कटुता जहर है। जिस व्यक्ति के पास क्षमा का अमृत होता है वह क्रोध व कटूता रूपी जहर को धोकर अर्थात् साफ कर स्वयं अमृत बन जाता है। मैत्री दिवस के इस अवसर पर संतों ने एवं श्रावक-श्राविकाओं ने परस्पर खमतखामणा की। मुनिश्री ने मैत्री पर्व की महत्ता पर प्रकाश डाला। मुनि संभव कुमार जी ने कहा कि समुद्र में चाहे जितनी नदियाँ मिल जाएँ सभी को अपने में समाहित कर लेता है मनुष्य समुद्र की तरह गहरा-गंभीर बनें। परिस्थितियाँ चाहे कैसी भी आएँ, जीवन में कभी संतुलन नहीं खोना चाहिए।