संपूर्ण दुनिया जीव-अजीव में समाहित है : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 26 जुलाई, 2021
ज्ञान प्रदाता परम पूज्य आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारी दुनिया दो तत्त्व वाली है। वे दो तत्त्व हैंजीव और अजीव। जीव और अजीव के सिवाय इस दुनिया में और कुछ भी नहीं है। जो कुछ हैवह या तो जीव है या अजीव है। तीसरी कोई चीज नहीं है।
पच्चीस बोलों में 21वाँ बोल हैराशि दोजीव राशि, अजीव राशि। अजीवों में वे चीजें हैं, जिनमें चैतन्य नहीं है। यहाँ शास्त्रकार ने जीवों की चर्चा की है कि जीव के दो ही प्रकार है।सिद्ध और संसारी। और भी अनेक भेद हम कर सकते हैं। यहाँ शास्त्रकार
ने जीवों को आठ भागों में विभाजित किया है। पहला प्रकार बताया हैनैयरिक। संसार में ऐसे जीव भी हैं, जो कष्ट की योनि में हैं। पापकर्म का उनको ऐसा फल मिलना होता
है कि वो नरक गति में जाते हैं। नरक का एक नीरय है। नीरय में रहने वाले नैयरिक कहलाते हैं।
दूसरा प्रकारतिर्यंच यौनिक, तीसरा तिर्यंच यौनिकी। ये तिर्यंच गति का विस्तार बता दिया गया। प्रश्न हो सकता है कि नरक गति वालों को एक प्रकार में ही लिया गया है, तिर्यंच वालों को दो भागों में क्यों लिया गया है। नरक में कोई जीव पुलिगं, स्त्रीलिगं नहीं होता, सारे के सारे नैयरिक नपुंसक लिगीं होते हैं। वहाँ सब एकाकार हैं।
तिर्यंच में पुरुषलिगीं, स्त्रीलिगीं और नपुंसक लिगीं भी होते हैं। तिर्यंच योनिकी में स्त्रीलिगीं समाविष्ट होते हैं पर तिर्यंच योनिक में पुरुष लिगीं और नपुंसक लिगीं दोनों समाविष्ट हो जाते हैं। तिर्यंचों में एकेंद्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक होते हैं। एकेंद्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीव केवल नपुंसक लिगीं ही होते हैं। पंचेंद्रिय तिर्यंच में तीनों होते हैं।
पंचेंद्रिय तिर्यंच के भी दो भेद हैंसंज्ञी और असंज्ञी। जितने भी असन्नी अमनस्क, तिर्यंच पंचेंद्रिय हैं वे सारे के सारे नपुंसक लिगीं ही होते हैं। सिर्फ संज्ञी पंचेंद्रिय के ही तीन भेद होते हैं। नपुंसक लिगीं संज्ञी और असंज्ञी दोनों में हो सकता है। गुरुदेव तुलसी के समय का स्वयं के एक संस्मरण प्रसंग को समझाया।
चौथा भेद है, मनुष्य और पाँचवाँ भेद मानुषी। यहाँ पर भी वो ही बात है। मनुष्य भी दो प्रकार के होते हैंसंज्ञी मनुष्य और असंज्ञी मनुष्य। असंज्ञी मनुष्य तो नपुंसक लिगीं ही होते हैं। संज्ञी मनुष्य में तीनों होते हैं। पुरुष, स्त्री और नपुंसक।
छठा भेद है देव, सातवाँ भेद है देवी। नपुंसक लिगं न हो ऐसी एक मात्र देव गति है। देव गति में भी ये देवियाँ ज्यादा ऊपर नहीं होती हैं। भवनपति व्यंतर, ज्योतष्क और वैमानिक में सिर्फ पहले-दूसरे में ही देवियाँ होती हैं। वैमानिक देव लोक में तीसरे देवलोक से लेकर सर्वार्थ सिद्ध तक देवियाँ नहीं होती हैं। जाने को ऊपर चली जाएँ पर मूलत: वहाँ पैदा नहीं होती हैं।
ये सात भेद तो सांसारिक जीवों के हो गए। आठवाँ भेद किया गया हैसिद्ध। मोक्ष में जो सारे सिद्ध जीव हैं, उनमें तो कोई स्त्री, पुरुष या नपुंसक होता ही नहीं है। केवल शुद्ध आत्माएँ हैं, शरीर है ही नहीं। वहाँ सारे के सारे जीव वेदातीत-लिगांतीत होते हैं। नौवें गुणस्थान के बाद तो मनुष्य भी अवेदी हो जाता है। पर लिगं वहाँ होता है।
सिद्धों के 15 भेद उनके पूर्वावस्था के आधार पर हैं। सिद्ध अपने आपमें अभेद हैं, निरंजन हैं, निराकार हैं, वहाँ ये लिगं-भेद जैसे कोई भेद नहीं होता। सब एकाकार विराजमान होते हैं। सब ज्योतिर्मय हैं। यों कुल आठ भेद सर्व जीवों के हैं।
दूसरे प्रकार से भी जीवों को आठ प्रकार से बाँट दिया गया हैआभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुत ज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन: पर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी, विभंग अज्ञानी। ये ज्ञान के आधार पर आठ भेद किए गए हैं।
केवलज्ञानी भेद में सारे सिद्ध आ जाएँगे। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान वाले भी केवलज्ञानी भेद में आ जाएँगे। बाकी के जो सात भेद हैं, वो नितांत संसारी जीवों के होते हैं। केवलज्ञानी सिद्ध और संसारी होते हैं।
मुख्य नियोजिका जी ने उत्पाद व्यय और ध्रौव्य को विस्तार से समझाया। अनेकांत की व्याख्या भी इसी आधार पर हो रही है।
वर्तमान में पूज्यप्रवर की सन्निधि में दीक्षा पर्याय में सबसे वरिष्ठ मुनि हर्षलाल जी ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी। साध्वी सुषमा कुमारी जी ने तपस्या की प्रेरणा दी। साध्वी विमलप्रभा जी ने भी अपनी भावना श्रीचरणों में अर्पित की।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
भीलवाड़ा व्यवस्था समिति के उपाध्यक्ष उदयलाल सिंघवी, तेरापंथ समाज, भीलवाड़ा ने गीत से अपनी अभिव्यक्ति श्रीचरणों में रखी।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया और समझाया कि सूई धागे में बँधी रहती है तो गुम नहीं होती है। हम भी ज्ञान के धागे से बंधे रहेंगे तो संसार में विनष्ट को प्राप्त नहीं हो सकेंगे।