आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

प्रेक्षा: अनुप्रेक्षा

स्वयं सत्य खोजें

एक व्यक्ति अपनी पत्नी के सामने शेखी बघारता हुआ बोला-‘आज मैंने तीन का उपकार किया है।’ पत्नी द्वारा इसका विवरण पूछे जाने पर वह बोला-‘आज प्रातः मैंने एक हलवाई से मिठाई खरीदी। उसे पैसा मिला, उसका उपकार हो गया। रास्ते में मुझे एक भिखमंगा मिला। थोड़ी मिठाई उसे दी। उसका उपकार हो गया। मेरा रुपया नकली था, उससे मुझे छुट्टी मिल गई। यह मेरा उपकार हो गया।’ इस प्रकार झूठी शेखी बघारने वाले बहुत लोग होते हैं। इस संदर्भ में श्रद्धेय गुरुदेव कालूगणी एक कहानी सुनाया करते-
किसी गाँव में एक वणिक रहता था। बातों का बादशाह था वह, किंतु था कायर। चूहों की खट-खट से डरता था, पर बातें करता था शेर के साथ मुकाबला करने की। अपने गाँव से प्रतिदिन छोटे-छोटे देहातों में जाता और सूर्यास्त के बाद वापस लौट आता। उसके घर लौटने में प्रायः विलंब हो जाता था। पत्नी पूछती-‘आप इतनी देर से क्यों आते हैं?’ वह कहता-‘तू घर पर बैठी रहती है। तुझे क्या पता? बाहर बस्ती में कितना कष्ट होता है, तू क्या जाने? देहातों से घर आता हूँ तो रास्ते में चोर मिल जाते हैं। उनसे मुकाबला करना पड़ता है। अन्यथा वे देखते-देखते फकीर बना देते हैं।’
पत्नी अपने पति के स्वभाव से परिचित थी। वह जानती थी कि ये शेखी बघारते हैं, इसलिए उसने एक दिन परीक्षा करने का निर्णय लिया। उस दिन वह बोली-‘घर में जरूरी काम है। आप जल्दी पहुँच जाना।’ वणिक बोला-‘मैं कोशिश करूँगा।’
वणिक की पतनी ने पुरुष का वेश बनाया। हाथ में तलवार ली और पति के रास्ते में जाकर एक वृक्ष की ओट में बैठ गई। उस दिन वह अधिक विलंब से आया था। सूर्य अस्त हो चुका था। थोड़ा-थोड़ा अंधेरा भी घिर गया। वणिक उस स्थान के निकट पहुँचा और वह ओट से बाहर आकर खड़ी हो गई। ऊँचे स्वर में वणिक को संबोधित कर वह बोली-‘वणिया! ओ वणिया! किधर जा रहा है?’ ये शब्द सुनते ही वणिक को कँपकँपी छूट गई। पत्नी फिर बोली-‘हाथ में जो थैला है, उसे चुपचाप मेरे सामने रख दे और बैठ जा यहाँ। एक घंटा तक यहाँ से हिलना मत।’ वणिक तो कुछ बोल ही नहीं सका। उसने चुपचाप थैला आगे कर दिया। वणिक की पत्नी ने थैला हाथ में लिया और जाते-जाते उसके मुँह पर एक चाँटा जड़ दिया।
पत्नी थैला लेकर घर पहुँच गई और पुनः अपना वेश बदल लिया। वह जानती थी कि आज तो वे देर से आएँगे अतः निश्चिंत होकर सो गई।
रात के बारह बजे वणिक ने आकर दरवाजा खटखटाया। पत्नी ने दरवाजा खोला और उसे उपालंभ देते हुए कहा-‘कितनी बार कहा था आपको कि आज घर पर कात है इसलिए जल्दी लौट आना। किंतु आप तो बारह बजाकर आए हैं।’ वणिक बोला-‘तुझे क्या बताऊँ, आज पूरे पचीस चोर मिल गए। उन सबसे बचकर आना कितना कठिन था। किसी को हाथों से धकेला, किसी को पाँवों से रौंदा, किसी को ललकारा और किसी को दुत्कारा। सच मानो आज तो तेरा सुहाग रहना था, इसलिए सही सलामत घर आ गया, पर मुकाबले में एक थैला चला गया, उसका अफसोस है।’
पत्नी झुंझलाती हुई बोली-‘भले आदमी! क्यों झूठ बोलते हो? कहाँ से आए थे पचीस चोर? मुझे भी तो दिखाओ।’ वणिक बोला-‘तू उन्हें देखते ही बेहोश हो जाएगी।’ पत्नी मुसकुराती हुई भीतर गई और थैला उसके सामने रखकर बोली-‘क्यों शेखी बघारते हो? वे पचीस चोर तो मैं ही थी।’ वणिक को काटो तो खून नहीं। अब वह सहमता हुआ बोला-‘आहे! अब समझ में आया कि यह सब तेरा मायाजाल था। जब मेरे मुँह पर चाँटा पड़ा तभी मैं समझ गया कि ऐसे हाथ किसी आदमी के नहीं हो सकते। तो वे कोमल-कोमल हाथ तेरे ही थे।’ पत्नी खिलखिलाकर हँस पड़ी। उस दिन के बाद वणिक ने बातें बनानी छोड़ दी।
शिविर-साधक इस बात को गंभीरता से लें कि केवल बातें बनाने या शेखी बघारने से काम नहीं होगा। साधना के लिए संपूर्ण भाव से समर्पित होकर प्रयोग करने से ही कुछ परिणाम आएगा और सत्य का साक्षात्कार होगा।

महावीर की ध्यान-मुद्रा

भगवान महावीर ध्यान के सचेतक प्रयोक्ता थे। उन्होंने अपने जीवन के हर पल को ध्यानमय बना लिया। उसकी ध्यान-साधना में किसी मुद्रा या प्रक्रिया विशेष को लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं थी। अर्हत की स्थिति तक पहुँचने से पूर्व वे जिन क्षणों में गहरे उतरे, वही उनकी ध्यान-मुद्रा बन गई।
भगवती सूत्र के तीसरे दशक (3/2/105) में भगवान महावीर की एक ऐतिहासिक ध्यान-मुद्रा निरूपित है। उसका निरूपण स्वयं भगवान महावीर ने अपने प्रथम शिष्य गणधर गौतम को संबोधित कर किया है। वे भगवान के बोल हैं-
‘तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा! छउमत्थकालियाए एक्का-रसवासपरियाए छट्ठंछट्ठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव सुंसुमारपुरे नगरे जेणेव असोयसंडे उज्जाणे जेणेव असोगपायवे जेणेव पुढवीसिलावट्टए तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स हेट्ठा पुढवीसिलवट्टयंसि अट्ठमभत्तं पगिण्हामि, दो वि पाए साहट्ट वग्घारियपाणी एगपोग्गलनिविट्ठदिट्ठी अणिमिसणयणे ईसिपल्भारगएणं काएणं अहापणिहिएहिं गत्तेहिं, संव्विदिएहिं गुत्तेहिं एगराइयं महापडिमं उपसंपज्जेत्ता णं विहरामि।’
‘गौतम! उस समय मैं छद्मस्थकालिक दीक्षापर्याय के ग्यारहवें वर्ष में था और निरंतर दो-दो दिन के उपवास की तपस्या, संयम और अन्य तपोयोग द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ अनुक्रम से परिव्रजन कर रहा था।
एक गाँव से दूसरे गाँव में व्रज्या करता हुआ मैं शुंशुमारपुर नगर में पहुँचा। वहाँ मैं अशोकवन उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वीशिला-पट्ट पर तीन दिन का उपवास (तेला) स्वीकार कर अवस्थित हो गया। उस क्रम में मैंने एक रात की महा-प्रतिमा स्वीकार की। उस समय मैं ध्यानस्थ था।
ध्यानावस्था में मेरे दोनों पाँव परस्पर सटे हुए थे। दोनों भुजाएँ प्रलंबित थीं। दृष्टि एक पुद्गल पर टिकी हुई थी। नयन अभिमिष थे। शरीर थोड़ा आगे की ओर झुका हुआ था। अवयव स्थिर थे और इंद्रियाँ संयत थीं।’
इस ध्यान-मुद्रा के द्वारा शरीर, मन और श्वास तीनों साथ-साथ सध जाते हैं। भगवान महावीर की यह ध्यान-मुद्रा ध्यान की अग्रिम-भूमिका पर आरोहण करने के लिए एक प्रशस्त आलंबन बन सकती है।

(क्रमशः)