कर्मों से मुक्त होकर आत्मा स्वयं परमात्मा में होती है अवस्थित: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 2 नवंबर, 2022
आगम व्याख्याता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने भगवती सूत्र की विवेचना करते हुए फरमाया कि प्रश्न किया गया कि क्या जो वेदना है, वह निर्जरा है, जो निर्जरा है, वह वेदना है? उत्तर दिया गया गौतम! यह उत्तर तर्कसंगत नहीं है। कारण वेदना कर्म की होती है, निर्जरा नो-कर्म की होती है। यह अंतर है। जैन दर्शन में कर्मवाद का सिद्धांत है। कर्मों से मुक्त होकर आत्मा स्वयं परमात्मा रूप में अवस्थित हो जाती है। अनंत आत्माएँ परमात्मा बन चुकी हैं। हर आत्मा का अस्तित्व अलग-अलग है। जैन दर्शन नियतिवाद को भी कहीं-कहीं इतना मानता है कि पुरुषार्थवाद नगण्य सा हो जाता है। असंभव शब्द का भी अस्तित्व है। भगवान महावीर भी राजा श्रेणिक को नरक जाने से नहीं बचा सके। तीर्थंकर अभव्य को भव्य भी नहीं बना सकते।
कर्मवाद के सिद्धांत में कर्म की अनेक अवस्थाएँ होती हैं। इसमें पहली अवस्था है कर्म का बंध होना और अंतिम अवस्था है, एक संदर्भ में उदय में आना। जब उदय होता है, तब कर्म का वेदन होता है। वेदन कार्य संपन्न हो जाता है, तब वह नो-कर्म होगा और नो-कर्म की निर्जरा होगी। वेदना-निर्जरा अलग है। कर्म के उदय में समता रखेंगे तो कर्म झड़ जाएँगे। आर्तध्यान से तो कर्म का बंध और होगा। शरीर काम करना कम कर दे तो अंत में भी उसका लाभ उठाएँ-संथारा करने की भावना रखें। संथारा तीसरा और अंतिम मनोरथ है। न जीने की इच्छा न मरने की कामना। हम समता भाव रखें, यह काम्य है। पूज्यप्रवर ने कालू यशोविलास का विवेचन करवाया। तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
चाड़वास से छतरसिंह बैद ने कविता से अपने भाव अभिव्यक्त किए। कर्नाटक मलनाड़ की पूज्यप्रवर की यात्रा के संदर्भ में एक पुस्तक ‘मलनाड़ में महाश्रमण’ मलनाड़वासियों ने पूज्यप्रवर को अर्पित की। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।