साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा

                    (7)

नई सुबह आई है तुमको देने नव उपहार।
थमा रोशनी का रथ खुद ही आज तुम्हारा द्वार॥

ज्योतिपर्व पर ज्योतिपुंज का अभिनंदन हम करते
मरुधर की सूखी धरती पर इमरत निर्झर झरते
हर पगडंडी दीपित तुमसे पाकर नया उजारा
प्यास स्वयं ही नीर बन गई जब से तुम्हें निहारा
जला दिए हर चौराहे पर तुमने दीप हजार॥

चरण बढ़े जिस ओर तुम्हारे उतरा पंथ अजाना
ज्वार बन गया नाव स्वयं ही तुमको जब पहचाना
पथ के शूल फूल बन महके टूटा भ्रम का घेरा
वह पत्थर भगवान बन गया तुमने जिसे उकेरा
प्राणों की वीणा के तुम ही कसते आए तार॥

रही सिमटती सदा सहज ही हर मंजिल की दूरी
कभी न पाई बीहड़ में भी भटकन की मजबूरी
जितना दर्द मिला जीवन में उसको सुख में ढाला
सुधा बाँटते सबको पीकर अपमानों की हाला
पाल रहे पलकों में कितने तुम सपने सुकुमार॥

हर मुस्कान तुम्हारी पतझर को मधुमास बनाती
स्वर-लहरी की थिरकन से बेसुध में सुध आ जाती
केवल एक इशारा भर देता प्राणों में स्पंदन
अनुकम्पित जो नजर टिके तो टूट पड़े सब बंधन
तुम वसंत हो इस धरती के सचमुच सदाबहार॥


(7)

श्रमणसंघ-सेनानी को उस उजले मुक्‍ता-पानी को
सादर सौ-सौ बार नमन।
सतत सत्य-सन्धानी को उस विरल आत्मविज्ञानी को
सादर सौ-सौ बार नमन॥

मोहक आभामंडल की छवि लगती कितनी मनहारी
अद्भुत आकर्षण वाणी में पुलकित है दुनिया सारी
सुख-सुविधा बलिदानी को पौरुष की पुण्य निशानी को
मुक्‍त करों से बाँट रहा जो खुशियाँ उस वरदानी को॥

आत्मसाधना लक्ष्य मुख्य है साथ-साथ जनहित साधा
पाँव-पाँव चल धरती मापी पार हो गई हर बाधा
नया सवेरा ले आया जो उस इमरत-अभियानी को
पतझर को मधुमास बनाया उस अभिनव संगानी को॥

श्रम की बूँदों के सिंचन से मानवता को सरसाया
फसल उगा नैतिक मूल्यों की जन-जीवन को महकाया
काँटों पर भी फूल खिलाए उस अभिताभ कहानी को
पथभूलों को पथ दिखलाया उस सूरत पहचानी को॥

स्वप्न देखते नित्य नए जो पर यथार्थ सम्मुख रहता
सफल वही होता जीवन में जो सब कुछ मन से सहता
नए सृजन की साक्षी है जो उस दुर्वार जवानी को
जीर्ण-शीर्ण को भूमिसात करती उस शक्‍ति शिवानी को॥