उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य भारमलजी

एक बार भारमलजी स्वामी को कसौटी पर कसते हुए आचार्य भिक्षु ने कहाµ‘यह किसी व्यक्ति द्वारा तुम्हारी कोई गलती निकाली जाए तो तुम्हें दंडस्वरूप एक तेला करना होगा।’ भारमलजी स्वामी ने पूछाµ‘गुरुदेव! तेला गलती की सत्यता का करना होगा या मिथ्या अभियोग में भी?’ स्वामीजी ने कहाµ‘तेला तो करना ही होगा। गलती हो तो उसका प्रायश्चित्त समझना और गलती न हो तो कर्मों का उदय समझना।’ भारमलजी स्वामी ने सहर्ष गुरुआज्ञा को शिरोधार्य कर लिया। प्रत्येक मर्यादा के प्रति वे सजग थे। कहते हैं, जीवन भर में गलती निकालने का उन्होंने अवसर ही नहीं आने दिया।
मुनि भारमलजी सं0 1832 मार्गशीर्ष कृष्णा सप्तमी को युवाचार्य के रूप में नियुक्त हुए। स्वामीजी के दिवंगत होने के बाद सं0 1860 भाद्रव शुक्ला त्रयोदशी के दिन वे आचार्य बने।
आचार्य भारमलजी महान् साहसी थे। कष्टों में घबराना उन्होंने कभी नहीं सीखा था।
एक बार उदयपुर के राणा भीमसिंहजी को कुछ विरोधी लोगों ने बताया कि तेरापंथ के पूज्य भारमलजी दया-दान के निषेधक हैं। ये जहाँ रहते हैं वहाँ वर्षा नहीं होती। यदि इनका चातुर्मास यहाँ हुआ तो प्रजा को बड़ा भारी कष्ट होगा।
राणाजी ने उनकी बातें सही समझ भारमलजी स्वामी को शहर छोड़कर चले जाने की आज्ञा दे दी। साधुत्व के नियमानुसार वे वहाँ से विहार कर राजनगर पधार गए। बाद में वहाँ के निवासी केसरजी भंडारी ने एकांत अवसर मिलने पर राणा से कहाµ‘महाराज! जो संत चींटी को भी नहीं सताते उनको आपने नगर से निकाल दिया है। अब सुनता हूँ, मेवाड़ से निकाल देने का विचार किया जा रहा है। परंतु आप इस बात की गाँठ बाँध लें कि जिस राज्य में संतों को सताया जाता है, प्रकृति उसे कभी क्षमा नहीं करती। संतों को निकाल देने के पश्चात् यहाँ जो अप्रिय घटनाएँ घटी हैं वे प्रकृति के रोष का ही परिणाम हैं।’ केसरजी ने महाराणा को सारी वस्तुस्थिति से अवगत कराया। महाराणा को अपनी भूल का बहुत पश्चात्ताप हुआ।
महाराणा ने तत्काल अपने हाथ से भारमलजी स्वामी को एक पत्र दिया। उसमें लिखाµ‘आप दुष्टता करने वाले उन दुष्टों की ओर न देखें। मेरी तथा नगर की प्रजा की ओर देखकर दया करें।’ यह पत्र अपने आदमी को दे उसे आचार्यश्री भारमलजी के पास भेजा जिसमें वापस उदयपुर आने के लिए प्रार्थना की थी। भारमलजी स्वामी वृद्धावस्था के कारण दूसरी बार वहाँ नहीं पधारे। राणाजी ने दूसरा ‘रुक्का’ फिर भेजा और वहाँ पधारने की प्रार्थना की। तब भारमलजी स्वामी ने उनके विशेष आग्रह पर मुनि हेमराजजी, मुनि रायचंदजी और मुनि जीतमलजी आदि तेरह संतों को उदयपुर भेजा। भारमलजी स्वामी के जीवन की ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जिनसे उनके सहज गुणों की आभा झलकती है। उनके शासनकाल में अड़तीस साधु और चौवालीस साध्वियाँ दीक्षित हुईं।
वि0सं0 1878 माघ कृष्णा अष्टमी के दिन आचार्य भारमलजी का स्वर्गवास हो गया। अंतिम समय में उन्हें छह प्रहर का सागारी अनशन और तीन प्रहर का चौविहार अनशन आया।

(क्रमशः)