साँसों का इकतारा
(111)
जिसके उपकारों से उपकृत दो सदियों की युगधारा।
वह साहस पौरुष का दरिया ऋणी रहेगा जग सारा।।
नए सृजन का स्वप्न सलोना जिसके नयनों में पलता
दीया उम्मीदों का उजला जिसके दिल में था जलता
आश्वासन की खिड़की खोली मूर्च्छित मानवता जागी
कदम बढ़े जिस ओर उधर ही एक कारवां था चलता
गीतों की महफिल मनभावन लिया हाथ में इकतारा।।
गति में था विश्वास श्वास सब अर्पित मंजिल को पाने
मंजिल से पैदा हो जातीं नई मंजिलें अनजाने
पतझर में ऋतुराज रचा प्राणों के पल्लव हरे-भरे
जन-जन के मुख पर मुखरित है जिसके अद्भुत अफसाने
वह अवतार दिव्यता का था चमका बनकर ध्रुवतारा।।
लिखे काल के विशद भाल पर जिसने नए-नए आलेख
किया समय ने उसके अवदानों का गरिमामय अभिषेक
चिंतन निर्णय और अमल में क्षम्य नहीं था कालक्षेप
हो जाते अभिभूत सुधीजन उसका पुष्कल वाङ्मय देख
यादों के सागर में गोते लगा रहा मन बंजारा।।
(112)
कितने दिन हो गए आर्यवर! बार-बार स्मृतियों में आते।
दिन हो चाहे रात प्रात तुम औचक आकर मुझे जगाते।।
स्मृतियों के पन्नों पर अंकित पढ़ती मैं अपने अतीत को
कभी देख लेती हूँ रुककर जीवन की हर हार-जीत को
खड़े वहाँ पर भी मिल जाते कोई गीत-गज़ल तुम गाते।।
थे करीब जितने तुम मेरे अब उतने ही दूर हो गए
रुका कौन-सा काम वहाँ जो जाने को मजबूर हो गए
कर देती सहयोग तुम्हारा यदि तुम पहले ही बतलाते।।
खता हुई क्या ऐसी मुझसे बिना बताए छोड़ गए तुम
रिश्तों की रेशम-सी डोरी पल भर में ही तोड़ गए तुम
क्या होता संकेत जरा-सा कर देते तुम जाते-जाते।।
पसरा था आँगन में पतझर तुमने ही मधुमास खिलाया
सूख रहे थे कंठ प्यास से बिन माँगे पीयूष पिलाया
अब इन प्राणों की पुकार को कहो क्यों नहीं तुम सुन पाते।।
(क्रमशः)