संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
मेघः प्राह
(5) त्यक्तव्यो नाम देहोऽयं, पुरा पश्चाद् यदा कदा।
तत् किमर्थं हि भु×जीत, साधको ब्रूहि मे प्रभो!
मेघ बोलाµप्रभो! पहले या पीछे जब कभी एक दिन इस शरीर को छोड़ना है तो साधक किसलिए खाए? मुझे बताइए।

भगवान् प्राह
(6) बहिस्तात् ऊर्ध्वमादाय, नावकांक्षेत् कदाचन।
पूर्वकर्मविनाशार्थं, इमं देहं समुद्धरेत्।।
भगवान ने कहाµसाधक ऊर्ध्वलक्षी होकर कभी भी बाह्य-विषयों की आकांक्षा न करे। केवल पूर्व कर्मों के क्षय के लिए ही इस शरीर को धारण करे।
संसार और मोक्ष ये दो तत्त्व हैं। दोनों दो दिशाओं के प्रतिनिधि हैं। मोक्ष को अभीप्सित है आत्म-सुख और संसार को अभीप्सित है दैहिक सुख। मनुष्य जब दैहिक सुख से ऊब जाता है तब वह आत्मिक सुख की ओर दौड़ता है। फिर वह संसार में नहीं रहता। शरीर सुख आत्मिक सुख के सामने नगण्य है, लेकिन जो व्यक्ति उसे ही देखता है वह मोक्ष से दूर चला जाता है। मोक्षार्थी का लक्ष्य होता है आत्मिक सुख का आविर्भाव करना। वह दैहिक सुख से निवृत्त होता है और आत्मिक सुख में प्रवृत्त। उसे शरीर से मोह नहीं होता। वह शरीर-निर्वाह के लिए भोजन करता है, न कि स्वाद के लिए। शरीर-पोषण का जहाँ ध्येय होता है वहाँ मोक्ष गौण हो जाता है और जहाँ शरीर मोक्ष के लिए होता है वहाँ सारी क्रियाएँ मोक्षोचित हो जाती हैं।
इस श्लोक में शरीर-धारण या निर्वाह का एक मुख्य कारण बताया है और वह है कर्म-क्षय। कर्म-क्षय के अनेक हेतु हैं। देहधारी व्यक्ति ही धर्म-व्यवहार कर सकता है। इसी का समर्थन अगले श्लोक में किया गया है।

(7) विनाहारं न देहोऽसौ, न धर्मो देहमन्तरा।
निर्वाहं तेन देहस्य, कर्त्तुमाहार इष्यते।।
भोजन के बिना शरीर नहीं टिकता और शरीर के बिना धर्म नहीं होता, अतः शरीर का निर्वाह करने के लिए साधक भोजन करे, यह इष्ट है।

(8) व्रज्याक्षुत्शान्तिसेवायैः, प्राणसन्धारणाय च।
संयमाय तथा धर्मचिन्तायै मुनिराहरेत्।।
मुनि व्रज्याµगमनशक्ति, क्षुधाशांति, संयमी सेवा, प्राणधारण, संयम यात्रा तथा धर्मचिंतन कर सके वैसी शक्ति बनाए रखने के लिए भोजन करें। (क्रमशः)