मनोनुशासनम्
पहला प्रकरण
प्रश्न: क्या मन ज्ञानात्मक है?
उत्तर: भाव मन चैतन्य के विकास का एक स्तर है, इसीलिए वह ज्ञानात्मक है, किंतु उसका कार्य स्नायुमंडलं, मस्तिष्क और चिंतन-योग्य पुद्गलों की सहायता से होता है, इसलिए वह पौद्गलिक भी है। हमारी शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की क्रियाएँ स्नायुमंडल के द्वारा संचालित व नियंत्रित होती हैं। मस्तिष्क के दो भाग हैं-
(1) बृहन्मस्तिष्क। (2) लघु मस्तिष्क।
ज्ञानवाही स्नायु बृहन्मस्तिष्क तक अपना संदेश पहुँचाते हैं और उसके ज्ञान प्रकोष्ठ क्रियाशील हो जाते हैं, मन का मुख्य केंद्र यह बृहन्मस्तिष्क है।
कुछ आचार्य मन का स्थान हृदय को मानते हैं और कुछ आचार्य उसे समूचे शरीर में व्याप्त मानते हैं। उसका कोई निश्चित स्थान नहीं मानते। उनका मत है कि जहाँ श्वास है, वहाँ मन है और जहाँ मन है वहाँ श्वास है। ये दोनों दूध और पानी की भाँति परस्पर मिले हुए हैं-
मनो यत्र मरुत् तत्र, मरुद् यत्र मनस्ततः।
अतस्तुल्यक्रियावेतौ, संवीतौ क्षीरनीरवत्।।
(योगशास्त्र 5/2)
मन समूचे शरीर में व्याप्त है। इसका अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि मानसिक क्रिया के प्रयोजक केंद्र सारे शरीर में हैं। संवेदनावाही और ज्ञानवाही स्नायु समूचे शरीर में हैं। वे मस्तिष्क से संबद्ध हैं, इसलिए मानसिक व्यापार समूचे शरीर में संप्रेषित होता है, किंतु उसका केंद्र स्थान समूचा शरीर नहीं है।
प्रश्न: क्या मस्तिष्क की क्रिया ही मन नहीं है?
उत्तर: मस्तिष्क की क्रिया मन का एक भाग है किंतु केवल वही मन नहीं है।
प्रश्न: क्या मस्तिष्क के बिना मानसिक क्रिया होती है?
उत्तर: आँख के गोले के बिना कोई देख नहीं सकता, फिर भी उस गोलक की क्रिया को ही देखने की क्रिया नहीं कहा जा सकता। वैसे ही मस्तिष्क के बिना मनन की क्रिया नहीं होती, फिर भी मस्तिष्क ही मन नहीं है। आँख का गोला देखने में सहयोग करता है, वैसे ही मस्तिष्क मनन में सहायक है। चैतन्य का विकास और मस्तिष्क-रचना दोनों के समुचित योग से ही मानसिक क्रिया निष्पन्न होती है।
साधना के लिए इंद्रियों और मन की क्रिया और प्रक्रिया का ज्ञान आवश्यक है। बाह्य जगत् के साथ हमारा संपर्क इंद्रियों और मन के माध्यम से होता है। दृश्य जगत् को हम आँखों से देखते हैं, श्रव्य जगत् को हम कानों से सुनते हैं, गंधवान जगत् को हम सूँघते हैं, रसनीय जगत् का हम रस लेते हैं और स्पृश्य जगत् का हम स्पर्श करते हैं। रूप, शब्द, गंध, रस और स्पर्श का अस्तित्व इंद्रियों के लिए नहीं है फिर भी उनमें ग्राह्य-ग्राहक भाव है। इसलिए इंद्रियाँ ग्राहक हैं और विषय उनके द्वारा गृहीत होते हैं। इंद्रिय और विषय में ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध है। वह साधना का विषय नहीं है किंतु एक मनुष्य दृश्य को देखता है और उसके प्रति उसके मन में राग या द्वेष की ऊर्मि उठती है, यह स्थिति साधना की परिधि में आती है। इंद्रियों का प्रयोग करना और उसमें राग या द्वेष की ऊर्मियों को उठने न देना, इसी का नाम है साधना। यह तभी संभव हो सकता है जब मनुष्य को शुद्ध चैतन्य की भूमिका का अनुभव प्राप्त हो।
जानने और राग या द्वेष की ऊर्मि उत्पन्न होने में निश्चित संबंध नहीं है। किंतु जहाँ साधना नहीं होती, चैतन्य की केवल चैतन्य के रूप में अनुभूति या स्वीकृति नहीं होती, वहाँ ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध अनुरागी और प्रेम या द्वेष्टा और द्वेष्य के रूप में बदल जाता है। ज्ञान के उत्तरकाल में होने वाले राग या द्वेष को निर्वीर्य करना ही साधना का उद्देश्य है।
क्या यह संभव है, कोई व्यक्ति सुस्वादु पदार्थ खाए और उसके मन में राग उत्पन्न न हो? क्या यह संभव है, कोई आदमी बासी अन्न खाए और उसके मन में ग्लानि या द्वेष उत्पन्न न हो? साधारण आदमी के लिए यह संभव नहीं है। यह असंभव नहीं है किंतु संभव उसी के लिए है जिसने ऐसी स्थिति के निर्माण के लिए प्रयत्न किया है।
जिस व्यक्ति के मन में इंद्रिय-विषयों के प्रति आकर्षण है, वह उन्हें प्राप्त कर राग या द्वेष से मुक्त नहीं रह सकता। जिसके आकर्षण का प्रवाह बदल जाता है, विषयों के प्रति उसका आकर्षण समाप्त हो जाता है। यह वह स्थिति है जिसके लिए मनुष्य साधना के पथ पर चलता है।
इंद्रियों के साथ वृत्तियों का संबंध नहीं होता तब तक इंद्रिय और विषय में ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध होता है। पानी अपने आपमें स्वच्छ है। उसमें गंदगी आ मिलती है तब वह मैला हो जाता है। इंद्रिय और मन भी अपने आपमें स्वच्छ हैं। उनमें वृत्तियों की गंदगी आ जाती है तब वे मलिन बन जाते हैं। हम तब तक इंद्रिय और मन की गंदगी का शोधन या समापन नहीं कर सकते, जब तक वृत्तियों का शोधन या समापन नहीं कर लेते।
हमारी इंद्रियाँ चंचल क्यों हैं? मन चंचल है इसलिए इंद्रियाँ चंचल हैं। प्रश्न होगा-मन चंचल क्यों है? हमारी वृत्तियाँ चंचल हैं इसलिए मन चंचल है। चंचलता के हेतु इंद्रियाँ और मन नहीं हैं, वे तो चंचलता का भोग करती हैं। चंचलता के मूल हेतु वृत्तियाँ हैं। इसलिए जो व्यक्ति इंद्रिय और मन की निर्मलता और उनकी चंचलता के समापन का इच्छुक है उसके लिए यह प्राप्त होता है कि वह वृत्तियों के संशोधन का प्रयत्न करे।
वृत्तियाँ क्या हैं और उनके संशोधन की प्रक्रिया क्या है? मनुष्य के जीवन-परिचालन में जिसका सक्रिय योग होता है, उसे वृत्ति कहा जाता है। वर्तमान की क्रिया अतीत में वृत्ति का रूप ले लेती है। मनुष्य में-
(1) बुभुक्षा-खाने की इच्छा होती है। (2) शरीर-धारण की इच्छा होती है। (3) ऐन्द्रियिक आसक्ति होती है। (4) श्वास लेने का संस्कार होता है। (5) बोलने की इच्छा होती है। (6) चिंतन का संस्कार होता है।
ये जीवन-धारण की मौलिक वृत्तियाँ हैं। वृत्ति के पौषक तत्त्व दो हैं-राग और द्वेष। रागात्मक भावना के द्वारा मनुष्य प्रियता या अनुकूलता की अनुभूति करता है और द्वेषात्मक भावना के द्वारा मनुष्य अप्रियता या प्रतिकूलता की अनुभूति करता है। रागात्मक भाव माया और लोभ के रूप में प्रकट होता है। द्वेषात्मक भाव क्रोध और अभिमान के रूप में प्रकट होता है। ये वृत्तियों को अपने रंग में रंग देते हैं इसलिए इन्हें कषाय कहा गया है। इन भावों को पुष्टि देने वाले कुछ सहायक भाव हैं। जैसे-हास्य, रति-अरति, भय, शोक, घृणा, काम-वासना।
(क्रमशः)