समय का मूल्यांकन

समय का मूल्यांकन

नव वर्ष पर विशेष

काल एक अखंड तत्त्व है जिसको मनुष्य ने अपनी बुद्धि कौशल के द्वारा ज्ञानवर्धन व कुशल प्रबंधन के लिए विभक्त कर दिया। सैकेंड, मिनट, घंटा, दिन, माह, वर्ष और युग आदि के रूप में विभिन्न प्रकार से विभक्त करके यह जानने का प्रयास करता है कि किस व्यक्ति की कितनी अवस्था हो चुकी है तथा कौन-सी वस्तु कितनी प्राचीन हो सकती है। नवीनता और प्राचीनता का संबंध काल के विभक्तिकरण के साथ जुड़ा है। यदि समय के विभाग न हों तो प्राचीनता की कोई अवधारणा नहीं रहेगी।
समय अपनी गति के साथ निरंतर प्रवाहमान है। उसे रोकना किसी के वश की बात नहीं, यद्यपि पानी के बहते हुए प्रवाह को रोका अथवा मोड़ा जा सकता है। अल्प अथवा बहुतायत रूप में हवा के प्रवाह को भी रोकना अथवा मोड़ना संभव है किंतु समय का प्रवाह हर व्यक्ति, वस्तु को अपने साथ बहाकर ले जाता है। समय का सदुपयोग करने वाला उसको सार्थक सिद्ध कर लेता है अन्यथा यह व्यर्थ बीत जाता है। जो समय बीत जाता है, उस अतीत को व्यतीत होने के बाद लौटाना असंभव है और जो भविष्य हमारे सामने है उसके लिए स्वप्निल कल्पनाएँ व योजनाएँ बनाई जा सकती हैं किंतु उपयोग केवल वर्तमान का ही संभव है। आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में कहूँ तो-वर्तमान का सदुपयोग करने वाला ही स्वर्णिम भविष्य का सही रूप में निर्माण कर सकता है। जैन वाङ्मय में भगवान महावीर की वाणी का अति सुंदर सूत्र प्राप्त होता है-”रवणं जाणाहि पंडिए“ अर्थात् क्षण (समय) को पहचानने वाला ही विज्ञ (पंडित) होता है। जिसने वर्तमान क्षण को नहीं पहचाना वह कभी जीवन को विकसित नहीं कर सकता। केवल अतीत की चिंता व भविष्य की कोरी कल्पनाओं में जो समय खो देता है वह वर्तमान समय को भी विनष्ट कर देता है। अतः व्यक्ति को वर्तमान को देखने व सदुपयोग करने में तत्पर रहना चाहिए।
किसी कवि ने कहा-

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय हो गई, तो फिर करोगे कब।।

किंतु आज के मनुष्य की बौद्धिक क्षमता व तार्किक मस्तिष्क ने इस पद को परिवर्तित कर दिया और बोल उठा-अरे भाई-

आज करे सो काल कर, काल करे सो परसों।
इतनी जल्दी क्यों करे, जब जीना है तुझे बरसों।।

इससे लगता है कि या तो वह समय को पहचान चुका है। वह इस बात से अनभिज्ञ नहीं है कि मुझे कब तक जीना है या उसने मौत पर विजय प्राप्त कर ली अथवा वह मौत आने पर उससे भी तीव्र गति से पलायन करने में समर्थ है। ऐसा करने में सक्षम व्यक्ति ही इस प्रकार कह सकता है किंतु ये सब किसी के लिए संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में वर्तमान का सदुपयोग करना ही बुद्धिमत्ता का लक्षण है। मनुष्य जीवन का पहला लक्ष्य है-वर्तमान का सदुपयोग। व्यक्ति अपने जीवन का अधिकांश समय प्रमाद में बर्बाद करता है। वह सत्ता व संपदा को हासिल करने में जितना समय लगाता है उसका शतांश भाग भी जीवन को उन्नत बनाने अथवा आत्म-शोधन में नहीं लगाता। जब उसे धर्म या अध्यात्म मार्ग में बढ़ने, सत्संग, भजन या उपासना के लिए कहा जाता है तो एक मीठा-सा जवाब देता है कि भाई-क्या करें? समय नहीं है और मौज, शौक व बेकार की बातों में उसे समय गँवाने में कोई चिंतन या चिंता नहीं होती। जब नया वर्ष प्रारंभ होता है तो उसके स्वागत में विगत वर्ष को अलविदा अवश्य करता है। किंतु नए वर्ष के स्वागत में साथ उस समय का सदुपयोग नहीं होता है तो फिर---!
नए वर्ष के प्रारंभ में व्यक्ति अपने इष्ट-मित्रों को मंगलकामनाएँ भी प्रेषित करता है किंतु मंगलकामनाओं के साथ यदि आचरण मंगल नहीं होंगे तो कोरी मंगलकामनाओं से वर्ष अथवा जीवन मंगलमय कैसे बन पाएगा। अतः बौद्धिक अथवा विज्ञजनों का दायित्व होता है कि जीवन को मंगल, उत्तम व श्रेष्ठता प्रदान करने के लिए समय को सार्थक बनाने में यत्न करें। मानव जीवन की दिशा व दशा में बदलाव में, समय की सार्थकता आवश्यक है और यही है जीवन की सफलता का मुख्य रहस्य। अतः नववर्ष के मंगल प्रारंभ के साथ मंगल संकल्प करें कि जीवन में धर्म और अध्यात्म के मूलभूत तत्त्वों को जीवन में अवतरित करने में समय का उपयोग करूँगा। संकल्प का चिंतन और क्रियान्विति की दिशा में बढ़ते चरण ही अभिष्ट मंजिल दे पाएगी। सार्थक समय ही सफल जीवन की अमिट कहानी है। तो आइए, हम सब समय का मूल्यांकन करें और बढ़ते रहें, हमारे कदम मंजिल की ओर---।