साँसों का इकतारा
(118)
कब सोचा था इस जीवन में
बिना तुम्हारे जीना होगा।
इमरत की अभिलाषा थी पर
कभी गरल भी पीना होगा।।
कड़ी धूप से झुलस रहा तन
शीतल छाया मिली तुम्हारी
आया नव चैतन्य सुरों में
जुड़ी सहज तुमसे इकतारी
पीड़ा से बोझिल मानस को
तुमने ही हँसना सिखलाया
भटके-बहके श्लथ कदमों को
निर्यातक सत्पथ दिखलाया
कब सोचा इस परिचय का पट
सचमुच इतना झीना होगा।।
जो बैसाखी मिली देव से
उसके ही बल पर चलना है
अपने पैरों से चलने की
करें कल्पना यह छलना है
जो भी सीख सुनाई तुमने
रोम-रोम में वह रम जाए
बही धार अविरल विकास की
वह क्यों कभी कहीं थम पाए
कब सोचा हर बोल तुम्हारा
कुंदन जड़ा नगीना होगा।।
साँस-साँस में दर्द भरा है
कैसे उसको सहन करें अब
गुमसुम है प्राणों की वीणा
कैसे उसकी पीर हरें हम
तुम आए थे राही बनकर
हमने शाश्वत मान लिया था।
अर्हत् के प्रतिरूप देव तुम
बस इतना पहचान लिया था।
कब सोचा मुखरित अधरों को
कभी अचानक सीना होगा।।
सूरज उस दिन भी उदियाया
ठीक समय पर लिए उजाला।
पता नहीं किस मंसूबे से
उगली उसने विष की ज्वाला।
खुली खिड़कियाँ देख सामने
हौले से वह घुसी कक्ष में
नजर लगा दी निमिष मात्र में
मिला स्वास्थ्य जो एक पक्ष में।
कब सोचा यों क्रूर काल का
वह युगपुरुष चबीना होगा।।
(क्रमशः)