उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य तुलसी

नैतिक क्रांति, मानसिक शांति और व्यक्तित्व निर्माण की पृष्ठभूमि पर गुरुदेव तुलसी ने तीन अभियान चलाए-अणुव्रत आंदोलन, प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान। ये तीनों ही अभियान उस समय युग के लिए बहुत अपेक्षित थे। ये आज भी युगीन समस्या के समाधान के रूप में प्रतिष्ठित बने हुए हैं। अणुव्रत जाति, लिंग, रंग, संप्रदाय आदि के भेदों से ऊपर उठकर मानव मात्र को चारित्रिक मूल्यों के संकट से उबारने का उपक्रम है। प्रेक्षाध्यान मानसिक एवं शारीरिक तनावों से ग्रसित मानवीय चेतना को शांति के पथ पर अग्रसर कर रहा है। जीवन विज्ञान के प्रयोग व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया है एवं शैक्षिक जगत् की समस्याओं का समीचीन समाधान है।
गुरुदेव तुलसी ने अणुव्रत के मंच से मानवीय शांति एवं सद्भावना के अनेक कार्यक्रम आयोजित किए। उनके उदार चिंतन में संपूर्ण विश्व के कल्याण की कामना थी। फलस्वरूप उनके सान्निध्य में कई अंतर्राष्ट्रीय शांति सम्मेलन आयोजित हुए। प्रथम अंतर्राष्ट्रीय शांति सम्मेलन जो ‘शांति एवं अहिंसक उपक्रम पर प्रथम अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन’ के नाम से विश्रुत हुआ, उस सम्मेलन में तीस देशों के लगभग एक सौ पचास प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। उस सम्मेलन में जातीय एवं धार्मिक उन्माद, हिंसा तथा आणविक युद्ध के बढ़ते हुए खतरों से मानव जाति को मुक्त करवाने के लिए ‘लाडनूं घोषणा पत्र’ इस नाम से एक सर्वसम्मति से शांति प्रारूप स्वीकृत हुआ जिसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहना हुई। राजसमंद (मेवाड़) में भी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन पर ‘अहिंसा प्रशिक्षण पर राजसमंद घोषणा’ की स्वीकृति महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। इस प्रकार गुरुदेव तुलसी ने अपने बहुआयामी व्यक्तित्व से मानव जाति के कल्याण के लिए विभिन्न उपक्रम प्रस्तुत किए।
धर्मक्रांति और सांप्रदायिक सद्भाव उनके महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों में एक था। उनके अभिमत में धर्म का सबसे पवित्र स्थान मंदिर, मस्जिद, चर्च आदि धर्मस्थान नहीं बल्कि मनुष्य का अपना अंतःकरण है। वे रूढ़ धर्म के नहीं, जीवंत धर्म के परिपोषक थे। उन्होंने कहा-‘मुझे ऐसा धार्मिक नहीं चाहिए जो धर्मस्थान में बैठकर भक्त प्रह्लाद और मीरां की भक्ति प्रदर्शित करे और घर, दुकान एवं ऑफिस में बैठकर राक्षसी वृत्तियाँ प्रकट करे। ‘धर्म करने का अधिकार जितना एक महाजन को है, उतना ही एक हरिजन को है।’ उनके इन क्रांतिकारी विचारों ने बौद्धिक मानस में धार्मिकता का संचार किया और नास्तिक चेतना में भी आस्तिकता की लौ जलाई।
सांप्रदायिक सद्भाव की दिशा में वे सतत प्रयत्नशील रहे। यद्यपि वे एक संप्रदाय के आचार्य थे पर सांप्रदायिकता उनके विचारों पर कभी हावी नहीं हुई। वे अपने परिचय में कहते थे-‘मैं सबसे पहले मानव हूँ, उसके बाद धार्मिक हूँ, उसके बाद जैन हूँ और उसके बाद तेरापंथ का आचार्य हूँ।’ आचार्य तुलसी के इन्हीं क्रांतिकारी विचारों का परिणाम कहा जा सकता है कि जो तेरापंथ एक संघीय सीमा में आबद्ध था, वह न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर सका है। तेरापंथ के सिद्धांतों को युग की भाषा में रखकर उसे जन-जन की आस्था का केंद्र बनाना गुरुदेव तुलसी के युग की महान् उपलब्धि रही। नारी-जागरण, संस्कार-निर्माण, रूढ़ि-उन्मूलन एवं सामाजिक बुराइयों के बहिष्कार हेतु वे सतत प्रयत्नशील रहे। नए और प्राचीन मूल्यों में समन्वय स्थापित कर उन्होंने नई और पुरानी पीढ़ी के बीच एक सेतु का काम किया।
आचार्य तुलसी एक क्रांतिकारी युगपुरुष थे। क्रांति के साथ प्रायः विरोध का सह-अस्तित्व देखा जाता है। गुरुदेव तुलसी के क्रांतिकारी कदमों का विरोध भी कम नहीं हुआ। उनके जीवन में विरोध और अभिनंदन दोनों की पराकाष्ठा रही। एक तरफ उन्हें विश्वव्यापी सम्मान मिला तो विरोध भी कम नहीं मिला। पर वे सम्मान और विरोध दोनों में सदाबहार फूल की भाँति एकरूप रहे।
वे महान् पदयात्री थे। लगभग साठ हजार किलोमीटर पदयात्रा कर पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण भारत के अधिकांश भू-भाग में उन्होंने नैतिकता की लौ प्रज्वलित की। उनके युग में तेरापंथ का क्षेत्र-विस्तार बहुत व्यापक स्तर पर हुआ। भारत के प्रायः सभी प्रांतों में तथा भारत के बाहर भूटान, नेपाल में भी साधु-साध्वियों ने जाकर अणुव्रत के संदेश को पहुँचाया।

(क्रमशः)