अहंकार पतन का और विनय उत्थान का कारण बन सकता है: आचार्यश्री महाश्रमण
सिवांची-मालाणी संस्थान, 5 जनवरी, 2023
जन-जन को सन्मार्ग बताने वाले आचार्यश्री महाश्रमण जी प्रातः 10 किलोमीटर का विहार कर सिवांची- मालाणी क्षेत्रीय संस्थान में पधारे। यह संस्थान पूरे सिवांची-मालाणी का प्रतिनिधित्व करने वाला संस्थान है। वर्तमान के महावीर आचार्यप्रवर ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि किसी के घर में लक्ष्मी आना चाहती है, लक्ष्मी द्वार के बाहर तक पहुँच गई है, दिव्य लक्ष्मी प्रवेश के लिए इच्छुक है, परंतु घर का मालिक हाथ में डंडा लेकर द्वार पर आता है और दिव्य लक्ष्मी से कहता है कि खबरदार है, मेरे घर में आई तो। वह संसार में कितना अभागा आदमी होगा। यह एक लौकिक उदाहरण हो सकता है।
इसी प्रकार किसी साधु को कोई शिक्षा दे, विनय के बारे में, हित-भलाई की शिक्षा दे, जिसको प्रेरणा दी जा रही है, वह साधु कुपित हो जाता है, मुझे क्यों बार-बार शिक्षा देते हो। अच्छी शिक्षा और विनय के संदर्भ में वह साधु कुपित हो शिक्षा को ग्रहण नहीं करता है, मानो कि वह दंडे से आती हुई गुणरूपी लक्ष्मी को अपने जीवन में प्रवेश करने से रोकता है। हमारे जीवन में विनय एक महत्त्वपूर्ण सद्गुण होता है। विनय है, तो विद्या भी आ सकती है। ज्ञान सीखना है और ज्ञान देने वाले के प्रति विनय नहीं और ज्ञान के प्रति भी विनय नहीं तो उसमें कितना ज्ञान आ सकेगा और आ जाएगा तो वह उसका कितना सम्यक्, उपयोग कर पाएगा। अविनयता-अहंकारशीलता तो पतन का हेतु बन ही सकते हैं। अहंकार मदिरापान के समान है। साधु को तो इनको त्यागना चाहिए।
अहंकार पतन का और विनय उत्थान का कारण है। साधु अभिवादनशील सेवा-सुश्रुषा करने वाला है, उसकी चार बातें होती हैंµआयुष्य वृद्धि, विद्या का विकास, यश का विकास और बल का विकास। अनुशासन में समुचित वही रह सकता है, जिसमें विनय का भाव हो। किसी को घमंड नहीं करना चाहिए। शिष्यों के संदर्भ में गुरु का भोजन हैµशिष्य की भक्ति-विनय। आचार्यप्रवर ने मुनि धर्मरुचि से निवेदन किया कि आप बताओ कि उत्तरवर्ती आचार्य का क्या कर्तव्य होता है? मुनिश्री ने बताया कि उत्तरवर्ती आचार्य का कर्तव्य होता है कि वह पूर्वाचार्य को स्थापित करे। मुनि कुमार श्रमण जी ने कहा कि आचार्यश्री तुलसी ने फरमाया था कि इस प्रश्न का उत्तर उत्तरवर्ती आचार्य ही दे। उस समय पूज्यप्रवर जब मुनि महाश्रमण अवस्था में उत्तर दे रहे थे वो आचार्यश्री तुलसी के प्रश्न से बैठने लगे तो, आचार्यश्री ने कहा बैठते क्यों हो उत्तर दो।
पूज्यप्रवर ने कहा कि इसका सारांश यही है कि पूर्वाचार्यों के प्रति भी विनय का भाव रहना चाहिए। रत्नाधिक साधुओं को आचार्य भी वंदन करते हैं। आचार्य के लिए तो अपेक्षित है कि वे बड़े संतों को तिक्खुते से वंदना करें पर बड़े संतों के लिए अपेक्षित नहीं है कि वो तिक्खुते से आचार्य की वंदना करे। वंदन संयम पर्याय का हो रहा है। पंच पद वंदना में भी बड़े संत से अगर आचार्य दीक्षा पर्याय में छोटे हैं, तो तीसरे पद में आचार्य का नाम न लें। ऐसी परंपरा रही है। आचार्य के लिए बड़े संत वंदनीय होते हैं। आदेश-निर्देश का अधिकार तो आचार्य के पास ही होता है। मुनि कुमारश्रमण को 21 कल्याणक एवं मुनि धर्मरुचि जी को दो महीने विगय-वर्जन की बख्शीष करवाई।पूज्यप्रवर ने हाजरी का वाचन करते हुए प्रेरणाएँ प्रदान करवाई। नव दीक्षित साधु-साध्वियों ने लेख पत्र का वाचन किया। सभी को 21-21 कल्याणक बख्शीष करवाए। नव दीक्षित साध्वियों ने संतों की वंदना की। मुनि धर्मरुचि जी ने संतों की ओर से मंगलकामना प्रेषित की।
पूज्यप्रवर ने फरमाया कि आज हम सिवांची-मालाणी क्षेत्रीय संस्थान में आए हैं। यह संस्थान जितना हो सके धार्मिक-आध्यात्मिक गतिविधियों के संचालन का प्रयास करे। पूरे सिवांची- मालाणी में भी धार्मिक-आध्यात्मिक भावना रहे। पूज्यप्रवर के स्वागत में संस्थान के अध्यक्ष श्रीडूंगरचंद सालेचा, सामूहिक गीत, मुंबई के कस्टम कमिश्नर अशोक कोठारी, माणक कोठारी-संकलेचा परिवार द्वारा गीत, तुलसी किड्स स्कूल के बच्चे, बायतू कन्या मंडल, टीना देवी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। टीना देवी ने 19 की तपस्या के प्रत्याख्यान पूज्यप्रवर से लिए। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि हमें सम्यग् ज्ञान को महत्त्व देना चाहिए। आदमी जब जागृति के क्षण में होता है, तो कल्याण की बात कर सकता है।