अर्हम्

अर्हम्

अर्हम्

जन्म और मृत्यु जीवन के दो किनारे हैं, जिन पर व्यक्ति का अधिकार नहीं होता कि उसे कब, कहाँ, कैसे जन्म लेना है या मृत्यु को प्राप्त करना है, पर जन्म और मृत्यु के बीच जो जीवन है, उसे किस प्रकार जीना है उसमें व्यक्ति स्वतंत्र होता है। समणी स्थितप्रज्ञा जी के पूरे जीवन को जब मैं देखती हूँ तो लगता है, उन्होंने हर क्षेत्र में अनेक उपलब्धियों को हासिल किया। पंचाचार की साधना में वे विशेष सजग थे। ज्ञानाचार की दृष्टि से देखें तो उन्होंने चार विषयों में एम0ए0 की डिग्री हासिल की, नेट, पीएच0डी किया। वर्षों तक जैन विश्व भारती संस्थान में अध्यापन करवाया, विभागाध्यक्ष रहीं, अनेक शोधार्थियों का मार्गदर्शन किया, शोध आलेख लिखे, प्रेक्षाध्यान पत्रिका का संपादन आदि अनेक कार्य किए।
दर्शनाचार की दृष्टि से देखें तो जिनवाणी, देव-गुरु, धर्म पर आपकी गहरी आस्था थी। यात्रा के दौरान एक-एक श्रावक-श्राविकाओं की सार-संभाल करना, उन्हें सही दिशा देना, उनकी सोच को सकारात्मक और भव्यी जीवों को कर्मणा जैन बनाना उनके सम्यक् दर्शन की पुष्टि का परिचायक है। गृहस्थ से मुमुक्षु, मुमुक्षु से समणी और समणी से साध्वी तक की यात्रा आपके सम्यक् चारित्र की आराधना है।
तप, साधना के प्रति भी आपकी गहरी रुचि थीं आपने अपनी इस संयम यात्रा में साधना के अनेक प्रयोग किए, जिसमें मोई प्रतिमा का प्रयोग एक विलक्षण प्रयोग था। हमने आपको सतत् पुरुषार्थ करते देखा। आपने अपने वीर्य का कभी गोपन नहीं किया। सेवा-सहयोग में आपके हाथ सतत् तत्पर रहते। ‘घुणइ कम्मरयं’ इस आगम सूक्ति की उत्कृष्ट आराधना कर समणी स्थितप्रज्ञा जी ने अपने तीनों मनोरथ पूर्ण किए। गुरुदेव ने बड़ी कृपा करवाकर शासन गौरव साध्वी कनकश्री जी के हाथों उनका श्रेणी आरोहण करवाया। चौविहार संथारे का प्रत्याख्यान करवाया। अंतिम समय में भी संयम की उत्कृष्ट भावना और वंदना में समभाव की साधना हम सबके लिए प्रेरणा है। उस दिव्यात्मा को संपूर्ण समण श्रेणी की ओर से शत-शत श्रद्धांजलि और उनके आध्यात्मिक विकास की मंगलकामना---।