अर्हम्

अर्हम्

‘आणाए भामगं धम्मं’ इस आगम सूत्र को आत्मसात् करने वाली समणी स्थितप्रज्ञा जी गुरुदेव के आशीर्वाद से शीघ्र ही साध्वी स्थितप्रभा जी बन गई। मेरी समणी दीक्षा 1984 में हुई। आदरणीया समणी स्थितप्रज्ञा जी के साथ मुझे छोटी-छोटी 5 यात्रा करने का अवसर मिला। मैंने देखा कठोर अनुशासन के साथ उनके जीवन में कोमलता का संगम था। मैं जब नवदीक्षित थी तब अनेक बार आपका संरक्षण मुझे मिलता रहता था। मेरी परीक्षा के साथ आप तत्पर रहती थी। अन्य समणियाँ जब गोष्ठी आदि के लिए अन्यत्र प्रस्थान करती तब मुझे आपके पास रखा जाता था। आप ध्यान रखवाते थे।
किसी कार्य में कोई भूल हो जाती तब आप तेज स्वर में डाँट लगाती, किंतु पुनः वात्सल्य देकर संतुलन का दृश्य दिखाती थी। गुरुदेव की कृपा से मुझे लंबे समय से गुरुकुल की उपासना का अवसर मिलता ही रहा है। आप अपने पास बुलाकर मेरे माध्यम से गुरु सेवा सुनती एवं कहती थीं मैं गुरु सेवा सुनकर यहाँ बैठकर निर्जरा कर रही हूँ। 1993 में मेरी जन्मभूमि (बाव-गुजरात) में आपके साथ यात्रा की थी। उस समय यात्रा में अधिक समय रह गए। गुरुदेव का निर्देश नहीं था-थोड़ी-सी भूल रह गई। गुरुदेवश्री तुलसी से थोड़ा उपालंभ भी मिला। समणी स्थितप्रज्ञा जी ने उस अनुशासन को धैर्य से सहन किया। समणी स्थितप्रज्ञा जी के साथ मुझे जैन दर्शन में एम0ए0 करने का अवसर मिला। आपने मुझे अध्यापन भी करवाया। मैं आपके कृत उपकारों के प्रति नतमस्तक हूँ। आपके शुभ भविष्य की मंगलकामना करती हूँ।