सेवा की पर्याय समणी स्थितप्रज्ञा जी
सेवाभाव संघ की नींवों को गहराता है, आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त करता है। समणी स्थितप्रज्ञा जी का जीवन सेवा का जीता-जागता उदाहरण है। बात उस समय की है जब 1988 में मेरी दीक्षा हुई। कुछ समय पश्चात मुझे तीन बार टाइफाइड हुआ। मैं शारीरिक तथा मानसिक रूप से काफी कमजोर हो गई। मुझे इंजेक्शन से बहुत डर लगता था। समणी स्थितप्रज्ञा जी मेरी चित्त समाधि थी। मैंने उन्हें बताया कि आप चार समणी जी को बुलाकर लाएँ, वे मुझे पकड़ेंगे तो ही मैं इंजेक्शन लगवाऊँगी। उन्होंने कहा कि चार की कोई जरूरत नहीं, मैं ही पकड़ लूँगी, आप निश्चिंत हो इंजेक्शन लगा लो। उन्होंने मुझे पकड़ा, नर्स ने इंजेक्शन तैयार किया, जैसे ही लगाने लगी मैं बहुत तेजी से उछल गई। वह इंजेक्शन मेरे लगने की बजाय उनके हाथ में लग गया। अचानक ऐसा होने से उनके हाथ से खून निकलने लगा। नर्स ने कहाµयह इंजेक्शन बेकार हो गया। भय के मारे मेरी हालत देखने जैसी थी। पर समणी स्थितप्रज्ञा जी ने मुझे कुछ भी नहीं कहा। दिन थोड़ा ही था वे तुरंत किसी समणी जी को साथ लेकर दूसरा इंजेक्शन लेकर आए।
मुझे संबोध देते हुए कहा कि घबराओ नहीं। मैं आपको ‘आत्मा भिन्न शरीर भिन्न’ की अनुप्रेक्षा करवाती हूँ। अब मैं आपको पकडँूगी नहीं; आप स्वयं रिलेक्स होकर इंजेक्शन लगवाएँ। उस अस्वस्थता में बहुत इंजेक्शन लगे। अब मुझे किसी के सहारे की अपेक्षा नहीं थी लगभग महीने-भर वे मुझे निरंतर कायोत्सर्ग तथा अनुप्रेक्षा के प्रयोग करवाती रही। उनका वात्सल्य आज भी मेरी स्मृति में सहेजा हुआ मोती है। दीक्षा के बाद मेरे पात्र का रंग-रोगन वे निरंतर करती रही। अब तक लगभग 34 वर्षों में मैंने कभी भी पात्र निर्माण का कार्य स्वयं नहीं किया। उनके सान्निध्य में उन्होंने अनेक बार जप, तप, एकांतवास व मौन प्रयोग मुझे करवाए जो मेरे जीवन की धरोहर बन गए हैं।