साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा

(120)

अंतस का ताप हरो तुम तो
तन-ताप स्वयं ढल जाएगा।
जन-जन का पाप हरो तुम तो
मन-दीप स्वयं जल जाएगा।।

जब बरसे तुम जलधर बनकर
जीवन-धरती अंकुरित हुई
सुन बोल तुम्हारे अमियपगे
जड़ में चेतनता स्फुरित हुई
पा परस तुम्हारे चरणों का
माटी भी कुंदन बन निखरी
दो पल भी तुम रुक गए जहाँ
सहसा अनुपम आभा बिखरी
कर में शर-चाप धरो तुम तो
हिमशिखर स्वयं गल जाएगा।।

जीवनभर अनुसंधान किया
जग रहा देखता परछाईं
विष पी उगला पीयूष सदा
सरिता पौरुष की लहराई
सपने देखे नित नए-नए पर
जड़ जमीन में थी गहरी
व्यामोह न अपने चिंतन का
तुम बने रहे सच के प्रहरी
क्षमता बिन माप भरो तुम तो
कोई न मुझे छल पाएगा।।

तुम चले सहज हर दिन अनथक
रुकने का नाम नहीं भाया
तुम जले अंधेरों में बिन शक
बुझने का समय नहीं आया
तुम फले कल्पतरु बन मरु में
पथिकों को मिली सुखद छाया
क्यों छले गए हम प्रभु तुमसे
अब कहाँ मिलेगा वह साया
जीवन के पाप हरो तुम तो
अभिशाप स्वयं टल जाएगा।।

वह दिव्य रूप श्री तुलसी का
आँखों से कब ओझल होता
कानों के आसपास कल-कल
बहता है गीतों का सोता
वह अतल जिंदगी का सागर
मन लगा रहा उसमें गोता
धोता अपना कल्मष पूरा
क्यों अवसर ऐसा वह खोता
पुनरपि संलाप करो तुम तो
सार्थकता वह पल पाएगा।।

(क्रमशः)