आस्था पुष्टि का विशिष्ट पर्व है-मर्यादा महोत्सव
159वें मर्यादा महोत्सव पर विशेष आलेख
अकेले व्यक्ति के लिए कोई नियम-कानून अथवा मर्यादा नहीं होती किंतु परिवार, समाज अथवा राष्ट्र होता है। जहाँ सामूहिक जीवन होता है। वहाँ कानून या मर्यादा होना अत्यावश्यक होता है। मर्यादाहीन परिवार, समाज या राष्ट्र स्वयं के साथ दूसरों के लिए भी घातक सिद्ध हो जाता है। आज प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्रतापूर्वक जीना पसंद करता है। जो अच्छी बात है। किंतु स्वच्छंदता अच्छी नहीं होती। स्वतंत्र अर्थात् स्वयं पर शासन। जिस व्यक्ति का स्वयं की वृत्तियों पर नियंत्रण होता है। वहाँ किसी प्रकार की समस्या नहीं होती। समस्या वहाँ खड़ी होती है। जहाँ स्वच्छंदता होती है। स्वच्छंद अर्थात् अपनी मनमर्जी अर्थात् मैं जो कुछ भी करूँ मुझे कोई रोके नहीं टोके नहीं। वहाँ परिवार, समाज तथा राष्ट्र में विघटन पैदा हो जाते हैं। जो बिखराव और टकराव पैदा कर अनेक समस्याओं से घिर जाता है।
मर्यादा अर्थात् संविधान। वैसे प्रत्येक राष्ट्र, समाज, संगठन का अपना संविधान होता है। संविधान की धाराओं के अनुसार हर कार्य व्यवस्थित रूप से चलता रहता है। राष्ट्र, समाज की मर्यादाएँ अपनी होती हैं तो धर्मसंघों की अपनी मर्यादाएँ व्यवस्था और अनुशासन होता है। वर्तमान में तेरापंथ धर्मसंघ जो आचार्य भिक्षु द्वारा लगभग ढाई सौ वर्षों पूर्व स्थापित हुआ था। उसकी विलक्षणता यह है कि इसकी मर्यादाओं का केवल वाचन या पठन ही नहीं बल्कि हृदय से पालन भी होता है। क्योंकि ये मर्यादाएँ जबरन थोपी हुई नहीं होती बल्कि आत्म साक्षी भाव से सहज स्वीकृत होती हैं। वीर प्रसुता मारवाड़ की पुण्य धरा पर जन्मा एक महामानव जिसने संन्यास मार्ग को स्वीकार कर धर्मक्रांति का शंखनाद किया। धर्मसंघों में पनप रही शिथिलता को दूर करने के लिए अनेक परिषहों को सहन करके भी आगे बढ़ते रहें। अपने लोह-हाथों से जो लकीरें खींची, वे लकीरें तेरापंथ धर्मसंघ की ऐसी प्राणवान मर्यादाएँ बन गई हैं। जिनका पालन करने वाला साधक साधना की भूमिका में आगे बढ़ता हुआ गौरव की अनुभूति करता है। क्योंकि इन मर्यादाओं के साथ उसका प्रशस्त विवेक जुड़ा हुआ है। जिससे उन मर्यादाओं का अवमूल्यन नहीं होकर सही ढंग से मूल्यांकन हो पाया है।
यद्यपि आज का युग तार्किक युग है। तर्क का युग होने से व्यक्ति हर बात को तर्क से साबित करना चाहता है। जिससे उसकी अनुपालना सहज नहीं हो पाती। फिर भी तेरापंथ धर्मसंघ का प्रत्येक साधक मर्यादाओं के प्रति पूर्णतः श्रद्धावान आस्थावान होकर पालन करता है। धर्मसंघ के सर्वोच्च आचार्य पद पर आसीन संचालक आचार्य भी कुशलतापूर्वक साधक की अंतश्चेतना में मर्यादाओं के प्रति आस्था पैदा करते हैं। सक्षम व सफल नेतृत्व वही कहलाता है, जो धर्मसंघ के प्रत्येक सदस्य को साथ लेकर चल सके और वे ही मर्यादाएँ सफल व सार्थक होती है। जो युगानुकूल और तर्क सम्मत होती है। आचार्य भिक्षु महान विलक्षण मेधा के धनी पुरुष थे। जब धर्मसंघ का विस्तार हो रहा था तब उन्होंने संघ की सुव्यवस्था के लिए कुछ मर्यादाएँ बनाई। वे मर्यादा निर्माता बने और धर्मसंघ की दृष्टि से उन मर्यादाओं को धर्मसंघ के प्रत्येक सदस्य ने आचरण में स्वीकार किया।
कालांतर में तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य हुए श्रीमद् जयाचार्य। उन्होंने मर्यादाओं की आस्था पुष्टि के लिए मर्यादा महोत्सव मनाना प्रारंभ किया। अतः इस महोत्सव का नामकरण हो गया-मर्यादा महोत्सव। जो प्रत्येक वर्ष में एक बार माघ शुक्ला सप्तमी को वर्तमान आचार्य की सन्निधि में आयोजित होता है। आचार्य भिक्षु को किसी एक व्यक्ति ने प्रश्न किया-भीखणजी आपका यह धर्मसंघ कब तक चलेगा। आचार्य भिक्षु ने समाधान देते हुए कहा-जब तक धर्मसंघ के साधु-साध्वियाँ निष्ठा के साथ मर्यादाओं का पालन करते रहेंगे। मात्र सात साधुओं की विद्यमानता में बनाई गई मर्यादाएँ आज सात सौ अधिक साधु-साध्वियों में उसी प्रकार पालन की जा रही है। वे मौलिक मर्यादाएँ पाँच हैं-यथा
(1) प्रत्येक साधु-साध्वी एक आचार्य की आज्ञा में रहें।
(2) विहार-चातुर्मास आचार्य की आज्ञा से करें।
(3) अपना-अपना शिष्य-शिष्या न बनाएँ।
(4) दलबंदी-गुटबंदी न करें।
(5) पद के लिए उम्मीदवार न बने।
इस प्रकार ये छोटी-छोटी मर्यादाएँ व्यक्ति के जीवन को उच्चता व शिष्टता प्रदान करने वाली है। मर्यादा और अनुशासन के अभाव में व्यक्ति का जीवन आदर्श को प्राप्त नहीं कर सकता तथा जीवन उच्छृंखल बन जाता है। आज भारतीय संविधान की जिस प्रकार धज्जियाँ उड़ रही हैं। जिसके कारण वह निम्न स्तर पर जाता हुआ परिलक्षित हो रहा है। कारण स्पष्ट है संविधान के प्रति अनास्था भाव। वह राष्ट्र, समाज या संघ कभी विकास नहीं कर सकता जहाँ अनुशासन, मर्यादा, व्यवस्थाओं को गौण कर केवल अपने स्वार्थ का पोषण होता है। आस्था के अभाव में केवल मर्यादाएँ कल्याणकारी साबित नहीं हो सकती। वहाँ मर्यादा का मान बढ़ता है। जहाँ प्रगाढ़ आस्था के साथ मर्यादाएँ आत्मसात् होती हैं। आज राजनीति के क्षेत्र में कानून जो डंडे के बल पर थोपा जाता है। और आरोपित किया जाता है। उसके पालन में भी अनेक प्रकार की गलियाँ निकाल ली जाती हैं। वर्तमान में भारत की आजादी के इतने वर्ष होने के बावजूद संविधान की धाराओं में बार-बार संशोधन किया जा रहा है। जबकि तेरापंथ के दो सौ से अधिक समय होने के बावजूद मूल मर्यादाओं में परिवर्तन की अपेक्षा नहीं हुई।
यद्यपि उत्तरवर्ती आचार्यों ने समय सापेक्ष कुछ मर्यादाएँ बनाई हैं तो उनमें परिवर्तन भी किया है। मर्यादा महोत्सव के अवसर पर वर्तमान आचार्य की आज्ञा से साधु-साध्वियाँ विहार करते हैं। चातुर्मास की घोषणा होने पर उस दिशा में प्रस्थान करते हैं। जन-जन के मध्य मर्यादा, अनुशासन, व्यवस्था, पारस्परिक सौहार्द, मानवीय एकता का संदेश प्रसारित करते हुए कल्याण मार्ग पर बढ़ते रहते हैं। स्वतंत्र भारत में 15 अगस्त व 26 जनवरी का जो महत्त्व है। उससे भी तेरापंथ में मर्यादा महोत्सव का महत्त्व अधिक माना गया है। अच्छा तो यही है। भारत के प्रत्येक नागरिक के मन में अपने संविधान के प्रति आस्था भाव हो वे संविधान का अतिक्रमण न करे। दिल और दिमाग में विवेक पुष्ट रहे। जिससे कृतज्ञ भारत पुनः अपनी प्रतिष्ठा को बरकरार रखने में कामयाब हो सकेगा। मर्यादा महोत्सव संघीय पर्व है। किंतु इससे कोई भी व्यक्ति प्रेरणा ले सकता है।