समण श्रेणी की मुस्कराहट-समणी स्थितप्रज्ञा

समण श्रेणी की मुस्कराहट-समणी स्थितप्रज्ञा

गुरुदेव तुलसी ने जिस दिन विलक्षण दीक्षा देने की घोषणा की थी, वह तेरापंथ का दुर्लभ पृष्ठ था। उस समय हजारों श्रोता के मन में समुद्र की लहरों की भाँति हजारों जिज्ञासाएँ थीं कि आज तक जितनी दीक्षाएँ हुई हैं, उससे परे क्या विलक्षण होगा? कौन इस अनजानी राहों पर चलेगा? क्या उनके माता-पिता अपनी संतानों को यूँ ही छोड़ देंगे? उस समय किसी ने यह कल्पना नहीं की थी कि विलक्षण दीक्षा के रूप में समण श्रेणी संघ की यशोकीर्ति की एक धवल पंक्ति होगी।
गुरु का आह्वान पाकर मुमुक्षु सरिता के अंतस में गुरुभक्ति की उर्मिल तरंगित होने लगी। वह न स्वयं अपने को अपितु पिता के विरोधी स्वरों को भी सहर्ष आज्ञा देने के अनुकूल बनाया। गुरुदेव तुलसी ने इस श्रेणी की नींव की स्थिरता को सूचक रूप उनको समणी स्थितप्रज्ञा का अभिधान दिया। वह प्रथम दीक्षित और वह ज्येष्ठा थी। संस्था से समणी पर्याय तक उनका व्यक्तित्व उदीयमान और मेधावी के रूप में अपनी निजत्व की पहचान रखता था। विकास की दौड़ में उनका विश्वास सातत्य की गति में था। सन्निष्ठ पुरुषार्थ और सातत्य ने उनकी प्रतिभा को अहं भूमिका प्रदान की।
उनके बाहर-भीतर, दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे सर्वत्र ध्यान, स्वाध्याय और मंत्र साधना का दरिया मचलता था। यही कारण था कि अस्वस्थता के क्षणों में संकल्पी मन घड़ी की सुइयों को भी नजरअंदाज करके ‘नित्य नेम’ की परिपालना नहीं कर लेता, तब तक उनको सकुन नहीं मिलता। उनका स्वाध्याय शील मन जब आगम व अन्य काव्य ग्रंथों का स्वाध्याय करता तब गौतम ज्ञानशाला का ऐसा रोमांचक वातावरण बनता था कि शैक्ष समणियों को एक नया बोध पाठ मिलता।
सामाजिक चेतना में उन व्यक्तियों को छवि सार्थक महनीयता और कमनीयता लिए हुए उभरती है जो स्व का आलंबन लेकर दूसरों की वैशाखी पर नहीं चलते। ”ऐ मौत! तू मेरे पास क्या आएगी मैं स्वयं चलकर आऊँगा।“ (Bold Word) इस कहावत को अंतिम दिनों तक चरितार्थ किया। मूलतः वह अपना कार्य स्वयं करना चाहती थी, फिर भी किसी ने सहयोग किया तो उनके प्रति कृतज्ञता के स्वर अहर्निश मुखरित होते थे। वह स्वावलंबी समर्पित साधकों की उज्ज्वल परंपरा की एक सुदृढ़ कड़ी थी।
जीवन एक ग्रंथ है। उसमें अनेक पृष्ठ अनुकूलता-प्रतिकूलता की स्याही से अंकित होते हैं। वही व्यक्ति ऊर्जस्वल होता है जो प्रतिकूलता में भी विचारधारा को सौम्य रखता है। समणी स्थितप्रज्ञा ने भी हर परिस्थिति में भी ‘स्थितप्रज्ञ’ बनने का अभ्यास किया। विवेकानंद ने कहाµयदि तुम्हारे अंदर करुणा नहीं है तो तुम्हारा दिल पत्थर का टुकड़ा है, इसके विपरीत तुम करुणा के बागवाँ हो। (Bold word) उन्होंने अपनी करुणा की लौ को इतना प्रज्वलित रखा कि दूसरों की पीड़ा सुनकर उनके हाथ दुःख-दर्द को दूर करने में तत्पर हो जाते।
वे साधिका के साथ-साथ सामाजिक भी थे। वे घंटों-घंटों दूसरों के पास बैठकर प्रतिबोध देते थे। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा, जो उनके संपर्क में आया हो और उनके अपनत्व के घेरे में कैद न हो गया हो। (N.P.) गण और गणपति की दृष्टि उनकी पूजा और अर्चा थी। संघ के प्रत्येक सदस्य के भीतर मानो उन्हें संघ-देवता के ही दर्शन होते थे। अपने जीवन काल में इस श्रेणी की प्रत्येक नियोजिकाओं की प्रदत्त व्यवस्थाओं में सहयोगी भूत होती। निष्कर्ष रूप में समणी स्थितप्रज्ञा साधना, स्वाध्याय, सजगता, समर्पण, सरलता, स्वाभाविकता और सौम्यता की पर्याय थी।