शुभ योग से निर्जरा के साथ पुण्य का बंध स्वत: ही हो जाता है : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 9 अगस्त, 2021
मन मंदिर के देवता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि ठाणं आगम के नौवें अध्याय के 25वें अध्ययन में बताया गया हैजैन दर्शन में कर्मवाद का सिद्धांत है। आठ कर्म बताए गए हैं। पच्चीस बोल में दसवाँ बोल हैकर्म आठ।
इन आठ कर्मों में चार कर्म तो एकांततया पाप रूप में ही होते हैंज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय। इन्हें घाती कर्म भी कहा जाता है। शेष चार कर्म अघाती कर्म कहलाते हैंवेदनीय, नाम, गौत्र, आयुष्य। इनमें से प्रत्येक कर्म पाप रूप भी होता है, तो पुण्य रूप भी होता है। जैसे वेदनीय कर्म के दो भेद हैंसातवेदनीय और असातवेदनीय। सातवेदनीय पुण्य रूप है, असातवेदनीय पाप रूप है।
शुभ आयुष्य पुण्य रूप में है, अशुभ आयुष्य पाप रूप में है। ऐसे ही नाम कर्म में शुभ नाम कर्म और अशुभ नाम कर्म। गौत्र कर्म में भी उच्च गौत्र पुण्य रूप में और नीच गौत्र पाप रूप में होता है। आठ कर्म में पचहत्तर प्रतिशत तो पाप के खाते में आते हैं। पच्चीस प्रतिशत पुण्य के खाते में आते हैं। पुण्य कर्म का भी बंध होता है।
शास्त्रकार ने पुण्य के नौ प्रकार बताए हैंअन्न पुण्य, जिस साधु को कोई दान देता है। दान देने में चित्त, वित्त, पात्र तीनों शुद्ध हो। दान देने वाला, देय वस्तु और दान लेना भी शुद्ध हो। तो आध्यात्मिक संदर्भ में वह विशुद्ध कोटि का दान हो जाता है। शुद्ध दान देना पुण्य बंध का कारण बन जाता है।
इसी तरह पान यानी पानी, वस्त्र, मकान, शैय्या-संस्तारक का दान देता है, तो पुण्य का बंध हो जाता है और फिर मन, वचन, पुण्य जैसे गुणी आदमी को देखा तो मन में प्रसन्नता का भाव आता है कि साधक आदमी है। वाणी से गुणगान करता है। शरीर से कोई अच्छा धार्मिक कार्य करे, काया का शुभ योग है।
एक प्रश्न उठता है कि निर्जरा और पुण्य दोनों का संबंध बताया गया है। दोनों का आधार शुभ योग है। एक मूल की दो शाखाएँ हैं। दो कार्य होते हैं। कारण तो हो गया शुभ योग। शुभ योग से पुण्य का बंध और निर्जरा का कार्य हो रहा है। पहले पुण्य फिर निर्जरा होती है। दोनों का कार्य प्रारंभ तो एक साथ हो जाता है, संपन्नता में फर्क पड़ता है, पुण्य पहले, निर्जरा बाद में संपन्न होती है।
एक सिद्धांत यह रहा है कि निर्जरा के बिना पुण्य का बंध नहीं हो सकता। तेरापंथ की मान्यता है, स्वतंत्र पुण्य का बंध नहीं होता है। निर्जरा के साथ ही होता है। अन्य मान्यता में पूज्य का स्वतंत्र बंध माना है।
एक प्रश्न है कि कोई आदमी कहता है, मुझे निर्जरा-निर्जरा चाहिए, पुण्य नहीं। उसे क्या करना चाहिए? पुण्य कम हो निर्जरा ज्यादा हो। ऐसा भी सिद्धांत है, क्या? अमुक कार्य में पुण्य की प्रधानता रहेगी, निर्जरा गौण रहेगी। तीसरा प्रश्न है कि ऐसा कोई सिद्धांत है क्या कि ज्यों-ज्यों साधना आगे बढ़ेगी निर्जरा, निर्जरा ज्यादा होती जाएगी, पुण्य बंध कम होगा। ऐसा किसी ग्रंथ में आया है, क्या?
शुभ योग आश्रव है, उससे पुण्य का बंध होता है, पर जो कर्म कटते हैं, वो शुभ योग आश्रव नहीं है, शुभ योग निर्जरा है। कारण तो एक है, कार्य दो होते हैं। कार्य की अपेक्षा से शुभ योग के दो भेद हो गए। कौन सा हेतु बनता है, जिससे शुभ योग आश्रव का कार्य कर देता है और कौन सा कारण होता है, जिससे शुभ योग निर्जरा हो जाती है।
मोहनीय कर्म का क्षयोपशम तो निर्जरा का हेतु बनता है। तेरापंथ दर्शन की मान्यता और अन्य आम्नाय की मान्यता में इस सूत्र की व्याख्या में अंतर है। किसको दान देने से पुण्य का बंध है, किसको दान देने से पुण्य का बंध नहीं है, यह विमैतक्य की बात हो जाती है। तेरापंथ की उत्पत्ति में नई मान्यता उत्पत्ति हुई है।
खेती तो अनाज के लिए होती है, भूसी तो साथ में आ जाती है। हम शुभ योग करें तो निर्जरा के लिए करें, साथ में पुण्य का बंध भी हो जाता है। कभी पुण्य की आकांक्षा मन में आ जाती है, वो साधना
के लिए, साधक के लिए बढ़िया नहीं।
पुण्य की वांछा करना साधना के क्षेत्र में गलत है।
कोई निदान कर लें कि इस तपस्या का मुझे फल मिले कि मैं अगले जन्म में चक्रवर्ती राजा बन जाऊँ, तो वह साधक अगर प्रायश्चित नहीं करता है, तो मानना चाहिए कि छोटी चीज के लिए बड़ी चीज को बेच दिया। मल्लीनाथ स्वामी के विषय में बात है कि जिसने तीर्थंकर नाम कर्म का बंधन कर लिया, वह मनुष्य ही बनेगा। तो क्या मल्लीनाथ ने पिछले तीसरे भव में तीर्थंकर नाम गौत्र का बंध कर लिया था? जाति-गति का बंधन कर लिया था क्या?
पुण्य का बंध होता है, पुण्य का उदय होता है, तो धातव्य बात है कि पुण्य है, वो पाप का निमित्त न बन जाए, चाहे गृहस्थ हो या चारित्रात्माएँ। अनुकूलताएँ हैं, तो साधना का और लाभ उठाएँ। इसलिए किसी ने कह दिया कि मुझे पुण्य नहीं चाहिए। पुण्य भावी पाप का कारण बन सकता है। हम यह ध्यान रखें कि हमारा पुण्य भावी पाप का निमित्त न बन जाए।
माणक चारित्र का विवेचन करते हुए पुज्यप्रवर ने युवाचार्य निर्धारण एवं माणकगणी के अंतिम समय के बारे में फरमाया।
अभातेयुप के तत्त्वावधान में दो दिवसीय बारह व्रत कार्यशाला के शुभारंभ पर पूज्यप्रवर ने फरमाया कि श्रावक के बारह व्रत एक त्याग संयम की चेतना जगाने का एक प्रयोग है। त्याग होने से श्रावक भी रत्नों की माला की कोटि में आ जाता है।
बारह व्रत में एक विशेषता यह है कि इसमें विरति तो है ही, आचरणात्मक धर्म भी आ गया तो किसी रूप में उपासनात्मक धर्म भी आ गया। प्रथम आठ व्रतों में तो छोड़ना है। नौवें में समय निकालना पड़ेगा, दसवें, ग्यारहवें में भी समय निकालना पड़ेगा। आठवाँ दान का प्रकार है। ये चार एक प्रकार के हैं। यूँ बारह व्रतों में समवाय हो गया। बारह व्रत हैं, उनको अच्छी तरह समझकर ग्रहण किया जाए। ग्रहण करके उनके पालन के प्रति भी जागरूक रहे। इससे श्रावक को एक अच्छा आध्यात्मिक लाभ मिल सकता है।
बढ़िया बात है कि युवकों में इसकी क्रियान्विति हो रही है। युवक खुद भी धारण करे और औरों का भी प्रयास करे। यह कार्यशाला सफल हो। लोगों में त्याग की चेतना बढ़े, श्रावकत्व में निखार आए यह काम्य है। पूज्यप्रवर ने सम्यक् दीक्षा ग्रहण करवाई। पुज्यप्रवर ने बारह व्रत श्रावकों को स्वीकार करवाए। तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि सबसे दुर्लभ है, पाँचों इंद्रियों की प्राप्ति, इंद्रियों की पूर्ण रचना होना, पूर्ण पर्याप्तियों का विकास होना और अंग, विकलता से रहित होना। ये चारों बातें होना दुर्लभ हैं।
अभातेयुप से अभिषेक पोखरना ने बारह व्रत कार्यशाला के बारे में जानकारी दी। पूरे भारत में कार्यशाला चलाई जा रही है। तेयुप, भीलवाड़ा अध्यक्ष संदीप चोरड़िया ने भी कार्यशाला की महत्ता के बारे में बताया।
आचार्यश्री महाश्रमण प्रवास समिति एवं जैन श्वेतांबर तेरापंथी सभा, सरदारशहर ने पंचामृत सरदारशहर- 2022 लोगो का अनावरण पूज्यप्रवर के समक्ष किया। अध्यक्ष बाबूलाल बोथरा ने अपनी भावना रखी। समूह गीत का सुमधुर संगान हुआ। इस अवसर पर पूज्यप्रवर ने फरमाया कि सरदारशहर में हमारा जो सन् 2022 प्रवास निर्धारित हुआ है। उस प्रवास के दौरान ये पाँच कार्यक्रम समायोज्य हैं। पाँचों ही कार्यक्रम वैशाख महीने में ही आ रहे हैं। आचार्य महाप्रज्ञ जी का स्मृति दिवस, अक्षय तृतीया, मेरे जीवन से संबंधित जन्म दिवस वो भी षष्ठीपूर्ति, फिर यह दायित्व ग्रहण का दिन, दीक्षा का 48वाँ वर्ष संपन्न होने का समय। यह पंचामृत 2022 । यह अमृत है, ऐसा अमृत पुष्ट होता रहे। जो परम सुखों की ओर ले जाने वाला हो। सरदारशहर के लोग खूब अच्छे ढंग से खूब नैतिकता, अहिंसा, सौहार्द भाव, खूब त्याग संयम की भावना रहे। हमारा जो संभावित प्रवास है, उसका उत्साह के लाभ उठाने का और औरों को लाभ देने का समुचित प्रयास करते रहें।
सरदारशहर पुराना क्षेत्र है। पूर्वाचार्यों का भी मानो बड़ा कृपा भाव रहा है। जो मघवागणी, माणकगणी, आचार्य महाप्रज्ञ जी व मेरे से जुड़ा हुआ है, ऐसा सरदारशहर है। लोगों में खूब अच्छी भावना, अच्छा माहौल रहे। विमल सामसुखा ने अपनी प्रस्तुति दी। संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।