मोहनीय कर्म को परास्त करने की साधना अध्यात्म की साधना है : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

मोहनीय कर्म को परास्त करने की साधना अध्यात्म की साधना है : आचार्यश्री महाश्रमण

भीलवाड़ा, 18 अगस्त, 2021
अमृत पुरुष आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि जैन दर्शन में कर्मवाद का सिद्धांत है। आठ कर्म प्रज्ञप्त हैं जिनमें कर्मों का राजा, प्रमुख कर्म मोहनीय कर्म है। अध्यात्म की साधना मुख्यत्व मोहनीय कर्म के विलय की साधना है। क्योंकि जितने भी पाप-कर्म लगते हैं, उन सारे पाप कर्मों का जनक, लगाने वाला यह मोहनीय कर्म मुख्यतया होता है।
अध्यात्म की साधना है, मोहनीय कर्म को परास्त करने का प्रयास। मोहनीय कर्म के दो मूल भेद हैंदर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। दर्शन मोहनीय के तीन प्रकार सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय तीन प्रकार हो जाते हैं। चारित्र मोहनीय के 25 प्रकार होते हैं।
चारित्र मोहनीय को दो भागों में विभक्‍त किया गया हैकषाय वेदनीय और नो कषाय वेदनीय। कषाय मूल चार हैंक्रोध, मान, माया, लोभ। इन चारों के फिर चार भेदअनंतानुबंधी अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संजवलन है। अनंतानुबंधी कषाय के कारण सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती।
गुणस्थानों का जो विकास होता है इनमें 12 गुणस्थानों तक तो मोहनीय कर्म का ही सहारा है। जैसे-जैसे मोहनीय कर्म पतला पड़ता है, त्यों-त्यों वो गुणस्थान ऊपर के आते जाते हैं। दर्शन मोहनीय का उपशम या क्षय हो गया तो चतुर्थ गुणस्थान की प्राप्ति हो जाती है। चतुर्थ गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व भी हो सकता है। मोहनीय कर्म और गुणस्थानों को तराजू के रूप में देखा जा सकता है। ज्यों-ज्यों मोहनीय कर्म दबेगा, त्यों-त्यों गुणस्थानों वाला भाग ऊपर जाएगा। मोहनीय का पात्र नीचे जाएगा।
चतुर्थ गुणस्थान तीन प्रकार का हो जाता है। उपशम सम्यक्त्व वाला, क्षायिक सम्यक्त्व वाला गुणस्थान और क्षायोपशमिक, सम्यक्त्व वाला गुणस्थान। क्षायिक समान वाला सबसे बढ़िया चतुर्थ गुणस्थान है। ये प्राप्त होने पर चौथे से नीचे ह्रास नहीं होगा। आगे ऊपर विकास ही होगा। एक दिन केवलज्ञान होना ही है।
अनंतानुबंधी कषाय की चार प्रकृति और दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृति का विलय होता है, तब सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। प्रत्याख्यानी और कमजोर पड़ेगा तो गुणस्थान का पलड़ा और ऊपर आएगा। पाँचवाँ गुणस्थान प्राप्त होगा। प्रत्याख्यानी का विलय होगा तो छठा गुणस्थान प्राप्त होगा।और साधना में निखार आएगा फिर सातवाँ आएगा। कषाय ज्यों-ज्यों कमजोर होंगे 8वाँ, नौवाँ, दसवाँ आएगा। दसवाँ आने पर मात्र सूक्ष्म लोभांश बचा है। आठवें गुणस्थान से दो रास्ते निकलते हैंउपशम श्रेणी और श्रावक श्रेणी का रास्ता। जिसने उपशम श्रेणी का रास्ता लिया है, वह जीव दसवें के बाद ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है। ग्यारहवें के बाद उसे नीचे गिरना ही पड़ेगा। कोई विकल्प नहीं है।
उपशम श्रेणी का रास्ता आगे नहीं जाता है। उसकी अंतिम सीमा है, ग्यारहवाँ गुणस्थान? नीचे आएगा ही। जिस जीव ने क्षपक श्रेणी का रास्ता लिया है, वह दसवें के बाद छलाँग भरेगा, ग्यारहवें में नहीं जाएगा, सीधा बारहवें में ही जाएगा। वहाँ से आगे बढ़ेगा और केवलज्ञान प्राप्त करेगा। अनंतराय की स्थिति आ जाएगी। बारहवें गुणस्थान तक मोहनीय कर्म के विलय की कहानी है।
मोह मजबूत है, तो गुणस्थान का पलड़ा नीचे आ जाएगा। मोह पतला पड़ेगा तो गुणस्थान का पलड़ा ऊँचा होता जाएगा। अमोह का वजन बढ़ेगा तो गुणस्थान का पलड़ा ऊँचा होगा। गुणस्थान का संबंध मोहकर्म से या आश्रव से या संवर और निर्जरा के साथ जुड़ा हुआ है। विस्तार से समझें तो हमें यह आलोक देखने को मिल सकेगा कि गुणस्थान बढ़ने का क्या कारण है?
यहाँ शास्त्रकार ने नौ नो कषायों का नाम उल्लेखित किया है, नो का संस्कृत या अंग्रेजी में मतलब नहीं होता है। नो का मतलब आंशिक निषेध भी होता है। साहचर्य भी नो का अर्थ है। यहाँ नो कषाय में नो का मतलब बताया हैसाहचर्य। ये नो कषाय मूल चार कषाय के साथ रहकर अपना परिणाम दिखाते हैं। जैसे बुध ग्रह स्वयं अपना फल नहीं देता है। दूसरे ग्रहों के साथ रहकर वह अपना फल देता है।
कषाय है तभी नो कषाय फल देते हैं। कषाय नहीं है, तो फिर नो कषाय का कुछ भी नहीं होता है। कषाय मुख्य है, ये नो कषाय उसके सहवर्ती है। वैसे लोभ में इनका समाविष्ट हो जाता है। पर कभी स्पष्टता के लिए पृथकता की गई है, अकषाय की साधना करने वाला इनसे बच सकता है। साधना के क्षेत्र में हमें इन नो कषायों से भी विरत रहने का अभ्यास रखना चाहिए। ये हमारे लिए कल्याणकारी हो।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। साध्वी संवरयशा जी ने भी तपस्या के प्रत्याख्यान लिए। छीतरमल मेहता ने 31 की तपस्या के प्रत्याख्यान लिए।
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि अनुकंपा दो प्रकार की होती हैलौकिक व लोकोत्तर या सावद्य और निरवद्य। सावद्य अनुकंपा संसार बढ़ाने वाला है। निरवद्य अनुकंपा मोक्ष की ओर ले जाने वाली है।
साध्वीवर्या जी ने कहा कि हम संतोष को धारण करें। जिसने मन से संतोष धारण कर लिया वह लोभ को शांत कर देता है और कल्याण की दिशा में आगे बढ़ सकता है।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में नीलम कोठारी, जेठमल चौधरी प्रभारी प्रेक्षाध्यान, संपत बोथरा, प्रज्ञा-श्रुति रांका ने अपने भावों की अभिव्यक्‍ति दी।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।