मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

 पहला प्रकरण

मनःशुद्धि के उपाय
(1) दृढ़ संकलप। (2) एकाग्रसन्निवेश।
दृढ़ संकल्प-हमारे मन में कामनाएँ उठती रहती हैं। उन कामनाओं में कार्यरूप में बदलने की क्षमता होती है, इसीलिए उन्हें संकल्प कहा जाता है। समुद्र में ऊर्मियों की भाँति संकल्प हमारे मन में उत्पन्न होते हैं और विलीन हो जाते हैं। वे अस्थिर संकल्प होते हैं। उनमें हमें कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। स्थिर संकल्प कार्य-रूप में परिवर्तित हुए बिना विलीन नहीं होता। वह दीर्घकाल तक टिका रहता है। उसे भावनात्मक रूप देने-बराबर उसकी पुनरावृत्ति करने से वह रूढ़ हो जाता है। दृढ़ संकल्प में कार्य-रूप में परिणत होने की क्षमता होती है। उसके द्वारा हम मन के स्वभाव को बदल सकते हैं। बुरे विचारों को छोड़ने व अच्छे विचारों की आदत डालने में दृढ़ संकल्प हमारी बहुत सहायता करता है।
एकाग्रसन्निवेशन-एकाग्रता मन की विरोधावस्था नहीं है। यह उसकी किसी एक विषय में विरोधावस्था है। अनेक मार्गों में जाते हुए प्रवाह को एक मार्ग में मोड़ देना है। नदी का प्रवाह जब अनेक मार्गों में बहता है, तब वह क्षीण हो जाता है। एक प्रवाह में जो शक्ति होती है, वह विभक्त प्रवाहों में नहीं हो सकती। सूर्य की बिखरी रश्मियों में वह शक्ति नहीं होती, जो केंद्रित किरणों में होती है। मन का प्रवाह भी एक आलंबन की ओर निरंतर बहता है तब उसमें अकल्पित शक्ति आ जाती है। एकाग्रता के क्षेत्र में मन की शांति और स्थिरता का अर्थ है चिंतन-प्रवाह को एक ही दिशा में प्रवाहित करना। मन के एकाग्र प्रवाह की अनेक पद्धतियाँ हैं। उनमें से कुछ पद्धतियों को यहाँ प्रस्तुत किया जाता है-
(1) द्रष्टा की स्थिति-मन की चंचलता को रोकने का यत्न मत कीजिए। वह जहाँ जैसे जाता है, उसे देखते रहिए। उस समय दृश्य या ज्ञेय मन को ही बना लीजिए। इस प्रकार तटस्थ द्रष्टा के रूप में जागरूक रहकर आप मन का अध्ययन ही नहीं कर पाएँगे, किंतु उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेंगे।
(2) विकल्पों की उपेक्षा-आपके मन में जो विकल्प उठते हैं, उनकी उपेक्षा कीजिए। जो प्रश्न उठते हैं, उनके उत्तर मत दीजिए।
जैसे प्रश्न करने वाला व्यक्ति उपेक्षा पाकर (उत्तर न पाकर) मौन हो जाता है, वैसे ही मन भी उपेक्षा पाकर (प्रश्नों का उत्तर न पाकर) शांत हो जाता है।
(3) अप्रयत्न-मन को स्थिर करने का बलात् प्रयत्न मत कीजिए। अप्रयत्न से मन सहज ही शांत हो जाता है। शरीर को स्थिर और श्वास को मंद कीजिए। जैसे-जैसे शरीर स्थिर और श्वास मंद होगा, वैसे मन अपने आप शांत हो जाएगा।
(4) श्वास-योग-मन का श्वास की गति के साथ योग कीजिए। श्वास के आने-जाने के क्रम पर ध्यान लगाइए, श्वास की गिनती कीजिए, मन अपने आप श्वास में लीन हो जाएगा।
(5) आकृति-आलंबन-अपने आराध्य की आकृति का मानसिक चित्र बनाइए। पहले देश-काल और बाह्य वातावरण के साथ उस आराध्य की आकृति की कल्पना कीजिए, फिर उसे मानसिक चित्र में बदल दीजिए। वह चित्र बहुत स्पष्ट और प्राणवान जैसा कीजिए।
यदि प्रारंभ में ऐसा करना कठिन लगे तो दृश्य आकृतियों पर मन को स्थापित कीजिए और साथ-साथ मानसिक चित्र बनाने का अभ्यास भी करते रहिए।
(6) शब्द-आलंबन-इष्ट मंत्रों में मन को लगाइए। मन का प्रवाह शब्द की दिशा में प्रवाहित होकर अन्य विकल्पों से शून्य हो जाता है। जप की प्रक्रिया में इसे विस्तार से बताया जाएगा।
(7) दृढ़ इच्छा-शक्ति-इच्छा-शक्ति भावों से उत्पन्न होती है। भावों की प्रबलता का नाम ही इच्छा-शक्ति है। भावों को इच्छा-शक्ति के रूप में बदलने का साधन है-स्वतः सूचना (।नजव ैनहहमेजपवद)। मन को सूचना देने से भावों में उत्तेजना आरंभ होती है और वही इच्छा-शक्ति के रूप में परिणत हो जाती है। इच्छा-शक्ति के विकास का निरंतर अभ्यास करने से वह दृढ़ हो जाती है। दृढ़ इच्छा-शक्ति से मन की एकाग्रता सहज ही सध जाती है।
(25) मिथ्यादृष्टिवविरतिः प्रमादः कषायों योगश्च परमाणुस्कंधाकर्षणहेतवः।।
(26) सम्यग्दृष्टिर्विरतिरप्रमादोऽकषायोऽयोगश्च तद्विकर्षणहेतवः।
(25) मिथ्यादृष्टि, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग (मन, वाणी तथा शरीर की प्रवृत्ति) के द्वारा आत्मा के साथ परमाणु-स्कंधों का संयोग होता है।
(26) सम्यग्दृष्टि, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग (मन, वाणी तथा शरीर की प्रवृत्तियों का निरोध) से आत्मा के साथ परमाणु-स्कंधों का योग रुक जाता है।

बंध और मुक्ति के हेतु
बंध और मुक्ति की मीमांसा बहुत विस्तार से की गई है। कभी-कभी ऐसा होता है कि बहुत विस्तार से कही गई बात स्मृति में नहीं रहती। तब उसका संक्षेप करना आवश्यक हो जाता है। संक्षेप में बंध का हेतु एक है और मोक्ष का हेतु भी एक ही है। इसी तथ्य को आचार्य हेमचंद्र ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-
आòवो भवहेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणम्।
इतीयमार्हती दृष्टिः सर्वमन्यत् प्रपंचनम्।।
आòव बंध का हेतु और संवर मोक्ष का हेतु। जैन-धर्म का मौलिक प्रतिपाद्य इतना ही है। शेष सब उसका विस्तार है।
योग-साधना के द्वारा हम मुक्ति का अनुभव करना चाहते हैं, किंतु आòव के द्वारा बंध प्रवाहित होता रहता है, इसलिए हम मुक्ति का अनुभव नहीं कर पाते।

(क्रमशः)