मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

पहला प्रकरण

मन की छह अवस्थाएँ

मन चेतना की वह अवस्था है जो बाहरी वातावरण और वृत्तियों से प्रभावित होता है। उसकी चंचलता सहज नहीं है किंतु बाह्य वातावरण और वृत्ति के योग से निष्पन्न है। चंचलता का मूल हेतु वृत्ति है। मनुष्य जो प्रवृत्ति करता है, वह अल्पकालिक होती है। प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है, पीछे उसकी स्मृति रह जाती है। चंचलता का एक हेतु स्मृति है।
मनुष्य कल्पनाशील प्राणी है। वह मन ही मन भविष्य का स्वप्न संजोता रहता है। वे स्वप्न मन में चंचलता उत्पन्न करते हैं। चंचलता का एक हेतु कल्पना है।
मनुष्य इंद्रियों के माध्यम से बाह्य जगत् के साथ संपर्क करता है। यह बाह्य जगत् शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शमय है। वह मन के अनुकूल और प्रतिकूल दोनों प्रकार का है। अनुकूल के प्रति आसक्ति और प्रतिकूल के प्रति द्वेष होता है। ये आसक्ति और द्वेष मन की चंचलता के वर्तमान हेतु हैं।
इस प्रकार स्मृति, कल्पना तथा आसक्ति और द्वेषµये चारों आंतरिक वृत्तियाँ मन को चंचल करती रहती हैं। मन की स्थिरता का अर्थ है स्मृति का निरोध, कल्पना का निरोध, आसक्ति का निरोध और द्वेष का निरोध। मन की स्थिरता का अभ्यास क्रम हैµस्मृति की शुद्धि, कल्पना की शुद्धि, आसक्ति की शुद्धि और द्वेष की शुद्धि।
जब आसक्ति और द्वेष तीव्रतम होते हैं तब दृष्टि और चारित्र दोनों विकारग्रस्त हो जाते हैं। उस स्थिति में मन का क्षोभ प्रबल हो
जाता है।
प्रारंभ में मन को एक स्मृति की परंपरा में लगाने का अभ्यास किया जाए। इससे मन की गति एक प्रवाह में हो जाती है। ऊपर से ऊपर उभरने वाली स्मृतियाँ और कल्पनाएँ रुक जाती हैं। एक स्मृति की अविच्छिन्न धारा का अभ्यास हो जाने पर फिर कुंभक का अभ्यास किया जाए। उसमें स्मृति और कल्पना का निरोध हो जाता है। ध्येय के साथ तादात्म्य होने पर सहज ही कुंभक हो जाता है।
अनासक्ति के लिए अनित्य और एकत्व भावना का अभ्यास किया जाता है। द्वेष-निवृत्ति के लिए आत्मौपम्य की भावना या प्रेम का विकास किया जाए। इस प्रकार समुचित साधनों के द्वारा मन की चंचलता के कारण-भूत तत्त्वों का निरोध किया जा सकता है।
मूढ़ अवस्था में आसक्ति और द्वेष बहुत प्रबल होते हैं। मूढ अवस्था का मन बाह्य जगत् और परिस्थिति का प्रतिबिंब लेता रहता है इसलिए वह एकाग्र या स्थिर होने की दिशा में गति नहीं कर पाता।
मूढ़ अवस्था की भूमिका पार कर लेने पर व्यक्ति के मन में भीतर की ओर झाँकने की भावना जागृत होती है। वह इस भावना की पूर्ति के लिए अंतर्निरीक्षण अर्थात् ध्यान का प्रयोग प्रारंभ करता है। किंतु यह प्रयोग एक श्वास में ही सफल नहीं हो जाता है। इसकी सफलता के लिए इसे बहुत लंबी साधना व प्रतीक्षा करनी पड़ती है। जब वह अंतर्निरीक्षण का प्रारंभ करता है, तब मन जो पहले शांत-सा प्रतीत होता था और अधिक चंचल हो जाता है। मन को इधर-उधर चक्कर लगाते देख ध्याता के मन में विकल्प उठता है कि वह ध्यान करके एक शांत सर्प की पूँछ पग पग रख लेता है या सोए सिंह को ललकार लेता है। किंतु यह घबराने की स्थिति नहीं है। यह मन की स्थिरता की ओर बढ़ने वाला पहला चरण है। आपने अनुभव किया होगा कि जमे हुए कूड़े-करकट के ढेर में दुर्गंध नहीं आती किंतु उसे साफ करने के लिए आप खोदेंगे, उस समय दुर्गंध फूट पड़ेगी। यह शोधन का पहला चरण है। किसी व्यक्ति के पेट में मल संचित है, उसे सामान्यतः कष्ट का अनुभव नहीं होता किंतु जब वस्ति (ऐनीमा) के द्वारा मल का शोधन किया जाता है, तब वायु कुपित हो जाता है, पीड़ा भी बढ़ जाती है किंतु वह प्रकोप और पीड़ा शोधन की प्रक्रिया का प्रथम संकेत है। ठीक इसी प्रकार ध्यान के प्रारंभ-काल में जो मन की चंचलता बढ़ती है, वह ध्यान की दिशा में उठने वाला पहला पग है।
प्रारंभ में कुछ समय तक ध्याता ध्यान करने की मुद्रा में बैठ जाता है किंतु अंतर्निरीक्षण की स्थिति का उसे कोई अनुभव नहीं होता। किसी के लिए यह स्थिति थोड़े समय के लिए होती है और किसी-किसी के लिए लंबे समय तक चली जाती है। जो इस स्थिति से घबराकर अंतर्निरीक्षण के अभ्यास को छोड़ देता है वह बीच में ही रुक जाता है और जो इस स्थिति में घबराता नहीं है वह अगली भूमिकाओं में पहुँच जाता है।
विक्षिप्त की अगली भूमिका संधि की है। इस भूमिका में ध्याता का मन अंतर्निरीक्षण का अनुभव कर लेता है; यद्यपि वह उसमें लंबे समय तक टिक नहीं पाता। अंतर्निरीक्षण करते-करते फिर बाहर लौट आता है। फिर अंतर्निरीक्षण का प्रयत्न करता है और फिर बाहर लौट आता है। किंतु इस भूमिका में एक बड़ा लाभ यह होता है कि अंतर्निरीक्षण का जो द्वार बंद था, वह खुल जाता है।
अंतर्निरीक्षण का अभ्यास बढ़ते-बढ़ते मन एक विषय पर स्थिर रहने लग जाता है। इस भूमिका में ध्येय के साथ ध्याता का श्लेष हो जाता है। जिस प्रकार गोंद से दो कागज चिपक जाते हैं, उसी प्रकार ध्याता का ध्येय के साथ चिपकाव हो जाता है किंतु चिपके हुए दो कागज आखिर दो ही रहते हैं। उनमें एकात्मकता नहीं होती।
स्थिरता का अभ्यास क्रमशः बढ़ता है। उसकी वृद्धि एक दिन तन्मयता या लीनता के बिंदु तक पहुँच जाती है। यह मन की पाँचवीं अवस्था है। पानी दूध में मिलकर जैसे अपना अस्तित्व खो देता है, वैसे ही इस भूमिका में ध्याता ध्येय में इतना तन्मय हो जाता है कि उसे अपने अस्तित्व का भान ही नहीं रहता। यह स्थिति पहले ही चरण में प्राप्त नहीं होती किंतु पूर्वोक्त क्रम से निरंतर आगे बढ़ते रहने से एक दिन यह स्थिति अवश्य प्राप्त हो जाती है।
पाँचवीं भूमिका में मन की स्थिरता शिखर तक पहुँच जाती है। किंतु उसका (मन का) अस्तित्व या उसकी गति समाप्त नहीं होती। ध्याता ध्येय में लीन होकर कुछ समय के लिए जैसे अपने उपलब्ध अस्तित्व को भुला देता है किंतु ध्येय की स्मृति उसे बराबर बनी रहती है। छठी भूमिका में वह ध्येय की स्मृति भी समाप्त हो जाती है। इसका अर्थ यह है कि मन का अस्तित्व या उसकी गतिक्रिया समाप्त हो जाती है। यह निरालंबन ध्यान या सहज चैतन्य के उदय की भूमिका है। इसमें प्रत्यक्षानुभूति प्रबल हो जाती है, इसलिए इंद्रिय और मन जो परोक्षानुभूति के माध्यम हैं, अर्थहीन बन जाते हैंµसमाप्त हो जाते हैं।

(क्रमशः)