आत्मस्थ होने के लिए मध्यस्थ होना आवश्यक है: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

आत्मस्थ होने के लिए मध्यस्थ होना आवश्यक है: आचार्यश्री महाश्रमण

युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी का गुजरात राज्य में भव्य मंगल प्रवेश

अंबाजी, गुजरात, 19 फरवरी, 2023
राजस्थान की धरा पर दो चातुर्मास संपन्न कर आज आचार्यप्रवर अपनी धवल सेना के साथ महात्मा गांधी की पावन धरा की ओर बढ़ रहे थे। यह ऐसी पावन धरा है जहाँ आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी सन् 2002 में एक शांति की मशाल लेकर पधारे थे। उसी धरा पर आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने अनंतर पट्टधर, साधना के श्लाका पुरुष, तेरापंथ के एकादशम अधिशास्ता का आज गुजरात राज्य में अंबाजी से प्रवेश हुआ। पूरे गुजरात से विशाल जनमेदिनी पूज्यप्रवर का पलक पावड़े बिछाए स्वागत में खड़े थे।
युगप्रधान आचार्यप्रवर ने गुजरात प्रवासियों को मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि जितने भी बुद्ध-तीर्थंकर अतीत में हुए हैं और जितने भी तीर्थंकर बुद्ध भविष्य में होंगे उनका प्रतिष्ठान-आधार शांति है। जैसे प्राणियों का आधार पृथ्वी होती है। वैसे बुद्धों-तीर्थंकरों का आधार शांति होती है। शांति आधार इसलिए है कि बुद्ध बनने के लिए मोहनीय कर्म को एकदम क्षय रूप में शांत करना आवश्यक होता है। अशांति फैलाने वाला एक मोहनीय कर्म है। इस मोहनीय कर्म को काटने के बाद ही कोई बुद्ध-तीर्थंकर-केवली बन सकता है। शांति है तो बुद्धत्व-तीर्थंकरत्व है।
जितना-जितना मोहनीय कर्म कमजोर पड़ता है, उतनी-उतनी शांति होती है। शांति आदमी को अभिष्ट होती है। बाह्य निमित्त भी शांति में कुछ सहायक बन सकते हैं। पर मोहनीय कर्म क्षय होने से आदमी भीड़ में भी परम शांति में रह सकता है। मोहनीय कर्म का कृषिकरण और विनाश ही शांति का उपादान है। हमारे जीवन में निमित्त का भी थोड़ा प्रभाव पड़ सकता है, पर उपादान पर ध्यान देना चाहिए।
राग-द्वेष की मुक्ति की साधना ही वास्तविक साधना है। इससे हमें आंतरिक शांति उपलब्ध हो सकती है। जैन धर्म में जो समता की बात है, वीतरागता की बात है। जैन शासन जो तीर्थंकरों-भगवान महावीर से जुड़ा शासन है, उस शासन में हम साधना कर रहे हैं। शांति के लिए समता की साधना आवश्यक होती है। कषायों से मुक्ति ही एक प्रकार से मुक्ति है। कषाय दूर रहने से हम आत्मस्थ बन सकते हैं। आत्मस्थ होने के लिए मध्यस्थ होना आवश्यक है। न राग, न द्वेष में जाना। आत्मस्थ होने से शांति प्राप्त हो सकती है। यह एक प्रसंग से समझाया कि मैं तो ठहरा हुआ ही हूँ, तुम ठहर जाओ। हम स्वयं आत्मस्थ बनें और दूसरों को आत्मस्थ बनाने का प्रयास करें।
जिंदगी में अध्यात्म का पथ मिलना बहुत बड़ी बात होती है। साधु का सम्यक्त्व और संयम रत्न है, बहुत बड़ी चीज है। भौतिक रत्न इनके सामने तुच्छ है। साधु जैसा बड़ा उद्योगपति, मालिक मिलना मुश्किल है। आज गुजरात आना हुआ है। योग की बात है कि मैं 2003, 2013 में गुजरात में था, आज 2023 में भी गुजरात में आना हो गया है। आचार्य महाप्रज्ञ जी उत्तर गुजरात में पधारे थे। हमारा उत्तर गुजरात में प्रवेश हुआ है। यह गांधी का गुजरात है। सांस्कृतिक-धार्मिक राज्य गुजरात है। यहाँ भी सद्भावना, नैतिकता, नशामुक्ति व धार्मिक प्रभावना में हम योगभूत बन सकते हैं।
आज चतुर्दशी-हाजरी का भी दिन है। पूज्यप्रवर ने हाजरी के रूप में मर्यादाओं को समझाया। शासनमाता ने आचार्यों के साथ अनेक यात्राएँ की थीं। हम मर्यादाओं के प्रति जागरूक रहें, यह काम्य है। लेख पत्र का वाचन साधु-साध्वियों द्वारा किया गया।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने कहा कि भारतीय परंपरा में चार युग माने जाते हैंµसतयुग, द्वापर युग, त्रेता युग और कलयुग। आचार्यप्रवर का जन्म कलयुग में हुआ है, इसलिए हमें भी कलयुग में आपका मार्गदर्शन प्राप्त हो रहा है। आप कलयुग को सतयुग बना रहे हैं। युगप्रधान बनने के बाद आचार्यप्रवर पहली बार उत्तर गुजरात में आए हैं। पूज्यप्रवर के स्वागत में उत्तर गुजरात सभा की ओर से उपासक शंकरलाल पितलिया, अंबाजी तेरापंथ समाज से आनंदीलाल धाकड़, कांतीलाल, उपासक अर्जुन मेड़तवाल, गौतम बाफना ने अपनी भावना व्यक्त की। अंबाजी तेरापंथ महिला मंडल, अहमदाबाद समाज, संपूर्ण गुजरात सभा ने पूज्यप्रवर के स्वागत में गीत की प्रस्तुति दी। मुनि अक्षय प्रकाश जी, साध्वी अक्षयप्रभा जी, समणी निर्मलप्रज्ञा जी ने अपनी भावनाएँ व्यक्त की। श्रावक समाज, सूरत द्वारा गीत प्रस्तुत किया गया। लोकसभा सांसद बनासकाठा पर्वतभाई, बालु भाई ने अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।