त्याग की चेतना को पुष्ट करने का करें प्रयास: आचार्यश्री महाश्रमण
वक्तापुर, साबरकांठा, 27 फरवरी, 23
जिनशासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमण जी प्रातः लगभग 19 किलोमीटर का विहार कर वक्तापुर में स्थित ओम चिंतामणि पाश्र्व-पद्मावती जैन तीर्थ में पधारे। पूज्यप्रवर ने पावन देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि दुनिया में भोग चलता है, योग भी चलता है। जो भोग पदार्थ, तत्त्व और काम है, वे एक शल्य है। काम-भोग विष के समान है। इन काम भोगों की जो भीतर से अभिलाषा रखता है, तो वह भी दुर्गति का कारण बन सकता है। त्याग के मार्ग में ऊपर से भी त्याग होना चाहिए और भीतर में भी त्याग होना चाहिए। मन में त्याग के भाव का प्रवाह हो तो एक अच्छी स्थिति बन सकती है। तीन करण तीन योग से त्याग हो। ये तो बहुत ऊँची बात है। जितना त्याग करें, उतना अच्छा है। धर्म के मार्ग में मन, वचन और काय का भी महत्त्व है।
साधारणतया आदमी छः कोटि की सामायिक करते हैं पर यदि सामायिक आठ या नौ कोटि की कर लें तो वह उच्च कोटि की सामायिक हो जाती है। इस प्रकार श्रावक की तीन प्रकार की सामायिक हो जाती है। सामायिक का अपना महत्त्व है। पुणिया श्रावक और राजा श्रेणिक के प्रसंग से सामायिक का महत्त्व समझाया। धर्म को बेचा नहीं जा सकता है। सामायिक तो अमूल्य है। सिद्धांततः मान्य है कि श्रावक तीन करण तीन योग से नौ कोटि की सामायिक भी कर सकता है। पर वह साधु के त्याग के बराबर नहीं कर सकता है। साधु के त्याग में कोई आगार नहीं है, निर्पेक्ष है। श्रावक के त्याग सापेक्ष है। इसलिए साधु अणगार है, संबंधों से उपरत है। गृहस्थ संबंधों की दुनिया में रहता है। साधु संयोग विप्रमुक्त रहे। साधु अनिकेत है, भिक्षु है।
साधु तो भिक्षा माँगने का अधिकारी होता है पर गृहस्थ के लिए भिक्षा माँगना गौरव की बात नहीं है। संसार के जो काम भोग है, इनसे भीतर से भी विरक्ति हो जाए वो बड़ा त्याग हो सकता है। हम सबमें त्याग की चेतना पुष्ट हो। गृहस्थ त्याग में जितना बढ़ सके, बढ़ाने का प्रयास करे, यह काम्य है।