शासन माता साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी की प्रथम पुण्य तिथि पर श्रद्धाप्रणति
स्रग्धरा
साध्वीशा भिक्षुपंथे त्रिमुनिपतियुगे कर्मशूरा सुसिद्धा,
प×चाशत्र्षबाढ़ं किमुतभवदसौ सद्गुरुणां सहाय्या।
जुष्टा भक्तैश्च पुष्टा बहुगुरुकृपया शिष्टिभिर्याविशिष्टा,
जाता संपूर्णकामा सुगुरुचरणयोः श्वासमन्त्यं प्रदाय।।
अर्थ-भैक्षव पंथ (तेरापंथ) में तीन आचार्यों के युग में पचास वर्षों से अधिक उनका (सद्गुरुओं का) अत्यंत सहयोग करने वाली सफल, पुरुषार्थशालिनी साध्वीप्रमुखा हुईं, जो भक्तों से सेवित, (उपासित) गुरुकृपा से अत्यंत पुष्ट तथा अपनी अनुशिष्टि (अनुशासन) से विशिष्ट थीं, वे गुरुचरणों में अपना अंतिम श्वास प्रदान करके कृतकाम हो गईं।
वसंततिलका
आनम्य रम्यगुणगम्यमगम्यकीर्तेः
साध्वीशिरोमणिसुधीकनकप्रभायाः।
आनन्ददं तदमलं यमलं पदाब्जं
भावान् निजान् प्रकटयामि यथार्थवृत्त्या।।
अर्थ-मैं अथाह कीर्तिसंपन्न साध्वी शिरोमणि विदुषी कनकप्रभाजी के रम्य गुणों से अभिप्रेत (युक्त), आनन्ददायी, पवित्र चरणयुगल में नमन करके अपने भावों को यथार्थ वृत्ति से प्रकट करती हूँ।
जानामि नो तव समं कविताकलापं
लापं तनोमि ननु भक्तिभरस्यभारैः।
आलोक्य काव्यकलनां कविभिः सुसृष्टा
मारभ्यते प्रणतियुक्तनुतिर्मयाऽपि।।
अर्थ-मैं आपके तुल्य काव्यकला को नहीं जानती, फिर भी भक्ति-समूह के भार से कथन कर रही हूँ। विद्वानों द्वारा सम्यग् प्रणीत काव्य-कृतियों को देखकर मेरे द्वारा भी प्रणति युक्त स्तुति प्रारंभ की जा रही है।
जाने जनान् जगति चापि निभालयामि
चित्ते कमे नयनयोर्वससि त्वमेव।
भूमौ पयांसि सरसां सरसानि सत्यं
तोयं तथापि जलदस्य नभोम्बुपाय।।
अर्थ-इस संसार में मैं लोगों को जानती हूँ और देखती भी हूँ, किंतु हृदय, मस्तिष्क और नेत्रों में आप ही बसती हो। यह सत्य है कि भूमि पर अनेक सरोवरों का पानी मीठा है, पर चातक को मेघ का जल ही प्रिय लगता है।
विश्वे गुणाऽगुणमयेऽपि गुणा गृहीता
दूरे विहाय सकलानपि दुगुर्णांस्तु।
पात्रे पयोजलमहये किल राजहंसो
योग्यं यथा पिबति नो कमलं कदापि।।
अर्थ-गुण-अवगुणमय लोक में आपने समस्त दुर्गुणों को दूर कर गुणों को ग्रहण किया, जैसे दूध मिश्रित जलमय पात्र से राजहंस दूध ही पीता है, कभी पानी नहीं पीता।
शार्दूलविक्रीडित
पादाब्जे सुगुरोः स्वकीयलघुतां दत्त्वा गता गौरवं
लब्धाऽनन्तविलक्षणा गुरुकृपा गम्यासुरम्या यया।
प्राप्ता नैकविधाभिधासुकथिता तां मंगलामंगला
वंदे शासनमातरं सविनयं नक्तं दिवा चेतसा।।
अर्थ-सुगुरु के चरणकमल में अपनी लघुता अर्पित करके गौरव, असीम, विलक्षण, रमणीय गुरुकृपा तथा अनेक प्रकार की सुकथित मंगलकारी अभिधाओं को जिन्होंने प्राप्त किया, उन शासनमाता को विनम्र अंतःकरण से रात-दिन वंदन करती हूँ।
सौभाग्येन गतं मया प्रतिदिनं पुण्ये प्रभाते वरे
सान्निध्यं तव शासनस्य जननि! ज्ञानार्जनप्रक्रमः।
ज्ञानं नः स्थिरमस्तु पुष्टगहनं वीर्यं त्वया योजितं
धन्यास्ते दिवसाः क्षणा वयमपि क्षेमंकराः पावनाः।।
अर्थ-शासन माते! मैंने पवित्र प्रभात में प्रतिदिन आपके सान्निध्य में सौभाग्य से ज्ञानार्जन का अवसर प्राप्त किया। हमारा ज्ञान स्थिर, पुष्ट एवं गहन बने, इसके लिए आपने अपने श्रम का नियोजन किया। वे कल्याणकारी एवं पावन दिन, क्षण और हम कृतकृत्य हो गए।
यामन्वेषयितुं गता बहिरितः तत्रैव नो प्रापिता
साक्षात्दर्शविधिर्मिलिष्यति कथं ध्यातं मयाऽनारतम्।
दृष्ट्वा चेतसि राजते मम वरे लब्धः चिरं विस्मयो
दूरं वा सविधं ब्रवीमि, सुतरां याती न जानाम्यहम्।।
अर्थ-जिनको ढूँढ़ने के लिए मैं बाहर गई, वहाँ वे नहीं मिलीं। फिर मैंने सतत चिंतन किया कि साक्षात् दर्शन की प्रक्रिया कैसे प्राप्त होगी? तदनन्तर मेरे श्रेष्ठ अंतःकरण में उन्हें विराजित देखकर मुझे अत्यधिक विस्मय हुआ। वे अत्यंत दूर है या अति समीप, जानते हुए भी मैं नहीं जानती।
किं कार्यं पथदर्शनं कुरु मम ज्ञीप्सामि ते कामनां
तां धित्सामि ममात्मनि प्रतिपलं रित्सामि लक्ष्यं शुभम्।
निष्ठा चेतसि पीवरास्ति कियती मित्सामि सत्यावनौ
नैवीप्सामि कृपां विहाय विशदं शिक्षै तु हार्दार्पणम्।।
अर्थ-अब मेरे लिए क्या करणीय है, आप पथदर्शन कीजिए, मैं आपकी कामना जानना चाहती हूँ। उसको आत्मा में धारण करके पवित्र लक्ष्य को पाना चाहती हूँ। मेरे अंतःकरण में निष्ठा कितनी पुष्ट है, यथार्थ के धरातल पर इसे मापना चाहती हूँ। आपकी कृपा को छोड़कर कुछ अन्य नहीं माँगतो और आपके पवित्र, हार्दिक अर्पणभाव को सीखना चाहती हूँ।
शिखरिणी
कला नाम्ना बाल्ये कृतिषु कलांयाः प्रतिकृतिः
प्रभायामाख्ये सा शुभकनकवर्णैः सुविदिता।
श्रमण्याः सन्दोहे यशसिगणभक्त्यां परपदा
प्रणम्याऽसामान्या त्रिगुरुवचनैर्भूषणमिता।।
अर्थ-बचपन में नाम से कला, कार्यों में कला की प्रतिकृति, कांति और संज्ञा में श्रेष्ठ कनक वर्ण तथा अक्षरों से प्रसिद्ध, श्रमणी समूह, यश तथा गण-भक्ति में श्रेष्ठ स्थान की धारिका, असाधारण, तीन गुरुओं के वचन रूपी आभूषण को प्राप्त करने वाली वह (विभूति) प्रणम्य है।
यदीयं माहात्म्यं समजनि विशिष्टं समतया
यदीयं वैदुष्यं समजनि विशिष्टं लघुतया।
यदीयं करुण्यं समजनि स्वशिष्ट्या सुरुचिर-
मनन्या धन्या सा कनकसदृशा मातृहृदया।।
अर्थ-जिनका माहात्म्य समता से, वैदुष्य लघुता से और कारुण्य अनुशासन से विशिष्ट एवं सुंदर बन गया, वे कनकतुल्या मातृहृदया अनन्य हैं, धन्य हैं।
सनाऽहं पश्येयं वदनकमलं मीलितदृशा
गुणानां गाथा ते वदतु सततं मूकरसिका।
श्रुती यातां शब्दान् श्रवणविकले मे तव सदा
त्यजेदन्यत्कार्यं करणपटलं भक्तिभरितम्।।
अर्थ-मैं सदा बंद आँखों से आपके मुखकमल को देखूँ, मेरी मूक रसना सतत आपकी गुण-गाथा कहे, मेरे कान (अन्य शब्दों को) सुनने से विकल होकर सदा आपके शब्दों को ही प्राप्त करे। इस प्रकार मेरा भक्तिपूरित इंद्रियसमूह अन्य कार्यों से विरत हो जाए।
प्रकामं वात्सल्यं सकलमनुजप्रीणनपरं
प्रमोदप्राकष्र्यं पदि पदि गुणामोदमहितम्।
प्रशस्या विश्वस्तिः प्रगतिपथचर्याविधिरता
ह्यमुष्या वंदे तां प्रकट महिमा सा दिवि गता।।
अर्थ-जिनका अत्यधिक वात्सल्य मनुष्यों को संतुष्ट करने में निरत था, प्रमोद भाव की प्रकृष्टता पग-पग पर गुणों के आमोद से युक्त थी, प्रगति-पथ की चर्या में जिन्हें उत्तम विश्वास था, स्वर्गवास हो जाने पर भी जो प्रकट महिमा वाली हैं, उनको मैं वंदन करती हूँ।
मन्दाक्रान्ता
वागीशाऽऽसीत् वदनसमये वावदूका वदन्ति
प्राप्तारूपा प्रणयनपदे संशयो नास्ति कि×िचत्।
नम्रा शिष्या गुरुचरणयोः वाचने संस्कृता वा
सा भक्तानां हृदि भगवती कानि रूपाणि वीक्षै?
अर्थ-युक्तिपुरस्सर विवेचन करने वाले कहते हैं कि वे वक्तव्य के समय वाग्मी (कुशल वक्ता), सृजन के दौरान निसंदेह विदुषी, गुरु-चरणों में विनम्र शिष्या, अध्यापन के समय शास्त्र-संस्कार से युक्त तथा भक्तों के हृदय में देवी थी। उनके किन-किन रूपों को देखूँ?
शक्तिर्भक्तिर्विमलसुमतिः स्फूर्तिसंघानुरक्तिः
प्रीत्याः वृष्टिर्मृदुकरुणदृष्टिर्विमुक्तिःसुयुक्तिः।
शुद्धिः सिद्धिः प्रकृतिसुगती ज्ञानसूताविरक्ति
रासन् सर्वा तरणितनये! विश्रुतास्ते विशिष्टाः।।
अर्थ-हे सूर्यसूता! (ज्ञातव्य है कि शासनमाता के संसारपक्षीय पिताजी का नाम सूरजमलजी बैद था) आपकी शक्ति, भक्ति, पवित्र मति, स्फूर्ति, संघ-अनुरक्ति, प्रेम की वृष्टि, कोमल, कृपामयी दृष्टि, विमुक्ति (निर्लोभता), श्रेष्ठ युक्ति (तर्कशक्ति), शुद्धि, सिद्धि, प्रकृति, सुगति, ज्ञान जनित विरक्ति-ये सभी विशेष तथा विख्यात थीं।
काव्यप्रज्ञा रुचिरकुशला विश्रुता चापि तासां
भाषाभावौ सरलगहनौ सारपूर्णौ विशेषौ
शैली रम्या विलसतितरां मानसेऽद्यापि नृणाम्
साध्वीशायै कनकसदृशे सुष्ठु तस्मै नमो नः
अर्थ-काव्यनिर्माण में जिनकी मति सुंदर, निपुण और प्रसिद्ध थी, भाषा-भाव सरल, गहन, सारयुक्त तथा विलक्षण थे। जिनकी रमणीय शैली मनुष्यों के मानस में आज भी तरंगित होती है, उन कनक तुल्या साध्वीप्रमुखाजी को हमारा सम्यग् नमन।
स्मारं स्मारं पुनरपि पुनः प्रेरणानुग्रहौ ते
जिह्वावाग्मी विरहितगिरा जातु वा लल्लरी सा।
यानि क्वाहं किमपि करवै किं ब्रवै कां विलौके?
पृच्छा चित्ते स्फुरति सततं चोत्तरं देहि वैहि।।
अर्थ-आपकी प्रेरणा एवं कृपाभावना को पुनश्च याद करके मेरी वाक्पटु रसना कभी वाणीशून्य हो जाती है तो कभी रुक-रुककर बोलने वाली। कहाँ जाऊँ, क्या करूँ? क्या कहूँ और किसे देखूँ? यह पृच्छा मन में निरंतर स्फुरित होती रहती है, आओ और मुझे समाधान दो।
इन्द्रवज्रा
वामे शये शोभितशिष्टियष्टि
र्हस्तेऽपरे राजितहार्दसृष्टिः।
प्राप्तौ कुतो द्वौ विपरीतभावौ
चित्रा विचित्रा भुवने कथा ते।।
अर्थ-आपके बाएँ हाथ में अनुशासन की यष्टि और दाएँ हाथ में प्रेम की सृष्टि विराजित थी। इन दो विपरीत भावों को आपने कहाँ से प्राप्त किया। इस संसार में आपकी कथा विचित्र है।
राजीवपत्रस्थिततोयबिंदु
र्मुक्ताकृतिं नूनमुपैति नित्यम्।
गत्वा सदेशं मम हृत्तु भूयो
जातं पवित्रं यदि किं विचित्रम्।।
अर्थ-कमलपत्र पर स्थित जलबिंदु मुक्ता के आकार को प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार आपका अति नैकट्य पाकर यदि मेरा हृदय पवित्र हो गया तो इसमें आश्चर्य क्या?
वाण्यर्णवे ते तुलसी पयोऽभूत्
चित्ताम्बरे ते तुलसी भगोऽभूत्।
देहाचलायां तुलसी शलोऽभूत्
त्वं सर्वरूपे तुलसीमयी वै।।
अर्थ-आपकी वाणी रूपी समुद्र में तुलसी रूप जल, चित्त रूपी आकाश में तुलसी रूप सूर्य तथा देह रूपी पृथ्वी में तुलसी रूप पर्वत विद्यमान था। आप सर्वरूपेण तुलसीमयी थी।
मितद्रुराशिं गगनस्य सीमां,
ज्ञातंु समर्थो मनुजः कदाचित्।
परं विशालं प्रवरं गुणौघं
न वक्तुमर्हा मनसा न वाचा।।
अर्थ-कदाचित् समुद्र की जलराशि तथा आकाश की सीमा को जानने में मनुष्य कभी सफल भी हो जाए, किंतु आपके श्रेष्ठ एवं विशाल गुण समूह को मन से तथा वचन से व्यक्त करने में वह समर्थ नहीं हो सकेगा।