शासनमाता साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी के प्रति उद्गार विलक्षणताओं की वर्णमाला
साध्वी शुभप्रभा
एक गुरु और एक विधान के नक्शेकदम पर सर्वात्मना समर्पण भाव से चलते हुए अपने व्यक्तित्व, कर्तृत्व एवं नेतृत्व से संघीय क्षितिज पर हस्ताक्षर करने वाली प्रभावक साध्वीप्रमुखाओं में एक विभूति है स्वनामधन्या साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी! विलक्षणताओं की वर्णमाला में गुंफित वे एक ऐसी महाशख्य है जिनका नाम स्मृति पटल पर उभरते ही आँखें अपलक हो जाती हैं, हाथ जुड़ जाते हैं, हृदय में सरसराहट महसूस होती है।
माथा स्वयमेव झुक जाता है, चिंतन के वातायन से यादों की बारातें उतरने लगती हैं। रक्त प्रवाह में वेग आ जाता है, कर्मजा शकित जाग जाती है तथा उनकी गुरुनिष्ठा, संघनिष्ठा, आत्मनिष्ठा और अनुशासननिष्ठा अनकहे ही बहुत कुछ कह जाती है। उनकी मूक वाणी गुमराहों को राह, सोए को जागृत, प्रमत्त को अप्रमत्त, अकर्मण्य को कर्मण्य बनने का दिव्य संदेश दे रही है। इस एक वर्षीय प्रलंब काल के दौरान भी वे दिल और दिमाग पर इस कदर प्रतिष्ठित रही कि हर नयन में उनका प्रतिबिंब है, हर धड़कन में उनकी आहट है, हर शब्द में उनका भाव मुखरित है, हर गतिविधि में उनकी सक्रियता जीवंत है, अनुभूतियों के संग्रहालय में वे हर ओर खड़ी, बैठी कार्य करती नजर आती हैं। प्रस्तुत है बिंब और प्रतिबिंब की कुछ झलकियाँµ
ऐसे बदला प्रवाह: समण दीक्षा लेने के कुछ समय पश्चात ही मेरे टी0बी0 हो गई। रीढ़ की हड्डी उससे प्रभावित हुई। विविध आयामी उपचार चला। दर्द के कारण नीचे बैठना, झुकना, वजन उठाना आदि पर प्रतिबंध लगा। पूरे दिन सीधा सोया रहना भी मुश्किल था। यद्यपि समणीजी अपनी ओर से जागरूकतापूर्वक चित्त समाधि पहुँचाने के लिए प्रयासरत थीं। मुझे किसी तरह की कमी महसूस नहीं होने देती। चिकित्सा की दृष्टि से कहीं आना-जाना होता, उसके लिए समुचित व्यवस्थाएँ कर दी जातीं। बावजूद इसके मेरा मन बेचैन रहता। बुझा दीया प्रकाश देगा भी कैसे? तन के साथ मन भी रुग्ण हो गया। दीक्षा लेते ही मैं पराश्रित जो बन गई। अपना निजी काम भी नहीं कर सकती। मैंने क्या लक्ष्य बनाया था पर हो क्या गया? कैसे जीवन-गाड़ी पटरी पर चल पाएगी? हताशा ने घेरा डाला। उलझन भरी स्थिति में मैंने एक निर्णय सा कर लिया कि अब मुझे संलेखना कर लेना चाहिए। पर मन की बात किसे और कैसे कहूँ, यह समस्या मेरे सामने थी।
एक दिन स्वयं आदरास्पद साध्वीप्रमुखाश्रीजी ने पूछ लियाµकैसे हो? सहानुभूतिपूर्ण एवं आत्मीयता भरे शब्द सुनकर आँखें नम हो गईं। चेहरे के माध्यम से भावों का भूगोल पढ़ने में माहिर आपश्री ने कहा कि क्या बात है? कोई दुविधा है तो बताओ।
आश्वस्ति पाकर मैंने हृदयगत भावों को निवेदित किया। आपने कहा कि इतने दिनों में ही ऐसा सोच लिया। देखो, यह शरीर तो मशीन की तरह है। जैसे मशीन का कलपुर्जा खराब होने पर उसको ठीक करवाया जाता है, उसे फेंका तो नहीं जाता। वैसे ही असातवेदनीय के उदय से बीमारी आई है तो उसे प्रसन्न मन से स्वीकार करो। रोग के साथ मैत्री करो। कर्जा उतारने जैसा महसूस करो। गुरु कृपा से सब ठीक होगा, ऐसा चिंतन करो।
ऐसे प्रवर पाथेय को पाकर मेरे विचारों का प्रवाह बदला। सम्यक् दिशा निर्देश मिलते ही मैं संतुलित हो गई।
लेखनी चलती रहे: परमपूज्य गुरुदेवश्री तुलसी के मुखकमल से 17 नवंबर, 1991 को सामायिक चारित्र की शपथ लेकर मैंने श्रेणी आरोहण किया। पूज्यप्रवर से ओज आहार ग्रहण करने के पश्चात् हम नवदीक्षित साध्वियाँ आपश्री की अग्रगामिता में सेवा केंद्र (चेइयं) पहुँची। उस समय लाडनूं में केंद्र की चाकरी थी। इसलिए पहले सेवाग्राही साध्वीवृंद को आहार करवाया जाता था। हम आदरास्पद महाश्रमणीजी की मंगल उपनिषद में आसीन थी।
आपश्री ने मेरी ओर देखा, संकेत किया। मैं तत्काल उपपात में पहुँची। एक छोटी डायरी और पेन आपके हाथ में था। मुस्कराते हुए आपने मुझे फरमायाµलो। मैंने उस आशीर्वाद को सहर्ष लिया। उस समय तो मैं उन्हें देने का रहस्य नहीं समझ पाई कि ग्रास देने से पूर्व ये क्यों दिए गए?
कुछ दिनों के पश्चात् मैंने आपश्री से पूछ ही लियाµमहाराज! आपश्री ने प्रथमतया डायरी और पेन मुझे प्रदान किया। यद्यपि वह मेरी अनमोल निधि है पर जिज्ञासा है कि ग्रास देने से पूर्व क्यों दिया? आपने मुझे समाहित करते हुए कहा ताकि लेखनी चलती रहे।
मेरे स्मृति पटल पर समण श्रेणी में व्यतीत वर्ष चलचित्र की भाँति उभर आए। जब आपश्री का मनोनयन दिवस आता और मैं आपके पास कोई संकल्प लेने आती तो आप मुझे प्रायः महीने में एक लेख लिखने का कहते। उससे कई लेखों का संग्रहण हो गया। इस क्षेत्र में मैं थोड़ी-बहुत एबीसीडी सीख पाई, वह सब उसी आशीर्वाद की फलश्रुति है।
फार्मूले परीक्षण के: मैंने देखा असाधारण साध्वीप्रमुखाश्री जी एक कुशल एवं समृद्ध परीक्षक थी। परीक्षण के उनके फार्मूले कई रूपों में रूपायित होकर सामने आते। कभी वे शुद्ध उच्चारण सहित कंठस्थ ज्ञान सुनकर, कभी किसी श्लोक या गाथा का अर्थ करवाकर, कभी डिक्टेशन देकर, कभी तत्काल भाषण बुलवाकर, कभी कुछ लिखने का निर्देश देकर, कभी समस्या-पूर्ति के लिए पंक्ति निर्धारित कर, कभी गीत-कविता लिखवाकर, कभी रंगाई-सिलाई करवाकर वे व्यक्तित्व का परीक्षण कर लेती, प्रेरणाएँ देती तथा प्रोत्साहित एवं प्ररस्कृत भी करवाती।
उपरोक्त बिंदुओं को सत्यापित करने के लिए मेरे सामने कई संदर्भ हैं। उनमें से एक प्रसंग है सन् 1994 के जयपुर प्रवास का। दिल्ली चातुर्मास से पूर्व मानवता के महामंगल गुरुदेवश्री तुलसी नव मनोनीत आचार्यश्री महाप्रज्ञ के साथ राजस्थान की राजधानी गुलाबी नगरी में पधारे। रास्ते में अचानक पूज्यप्रवर के स्वास्थ्य की स्थिति चिंतनीय बन गई। डाॅक्टर के निर्देशानुसार गुरुदेव के लिए विश्राम जरूरी था। इसलिए पूर्व निर्धारित स्वागत कार्यक्रम आचार्यप्रवर की मंगल सन्निधि में आयोजित हुआ। उसमें श्रद्धेया साध्वीप्रमुखाश्री जी का उद्बोधन भी होना था। पर वे गुरुदेव की उपासना में समासीन थी। उन्होंने वहीं से एक स्लिप मेरे नाम प्रेषित करवाई, जिसमें लिखा थाµअभी मैं कार्यक्रम में नहीं आ सकूँगी, इसलिए यदि नाम आए तो तुम्हें बोलना है। पढ़कर मैं स्तब्ध रह गई। परमपूज्य आचार्यप्रवर की मंगल सन्निधि, मुख्यमंत्री भैरोसिंह शेखावत, अनेक विशिष्ट व्यक्तित्व, विशाल परिषद सामने थी। मैं क्या और कैसे बोलूँगी? एक बारगी तो मन सशंकित हुआ। मैं तो विज्ञप्ति के लिए मैटर लिखने आई थी। पास में कुछ भी तो नहीं था। तत्काल मेरे मस्तिष्कीय पटल पर आपश्री द्वारा कथित एक वाक्यµजो चोंच देगा, वह चुग्गा भी देगा, उभर आया। बस इसी आत्मविश्वास और अनुप्रेक्षा के साथ नाम आने पर मैं खड़ी हो गई और आपश्री की आज्ञा का परिपालन कर पाई।
साध्वीप्रमुखाश्री जी ने स्नेहिल दृष्टि से मेरी ओर देखा। साध्वियों को आज की बात बताई और मुझे पुरस्कृत भी किया। कृतज्ञ भाव व्यक्त करते हुए मैंने निवेदन कियाµ‘मत्थएण वंदामि! आज आपने जैसी मेरी परीक्षा ली है। कृपा करके ऐसी परीक्षा फिर मत लेना। मेरी बात सुनते ही परिषद खिलखिला उठी।
ऐसी महानता, विशालता, उदारता की जानी-मानी मिसाल शासनमाता ने अपनी थाली में परोसा अन्न, प्याले का पानी, पहनने के वस्त्र, निजी प्रयोग में आने वाले उपकरण, लेखन व वक्तव्य के लिए अपनी डायरी कितनों को ही दी होगी लेने वाली उनमें एक मैं भी हूँ।