उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य तुलसी

अर्जुनमाली

अर्जुनमाली मगध देश की राजधानी राजगृह में रहने वाला एक माली था। इसकी पत्नी का नाम था बंधुमती। दोनों पति-पत्नी नगर के बाहर एक बगीचे में रहते थे। उसी बगीचे में मुद्गरपाणि नामक यक्ष का मंदिर था। अर्जुन अपनी पत्नी के साथ बगीचे में फूल बीनता, बीने हुए फूलों से यक्ष की भक्तिभाव से पूजा करता और फूलों को ले जाकर नगर में बेच आता। यों वह अपनी आजीविका चलाता था।
एक दिन दोनों ही पति-पत्नी बगीचे में थे। अर्जुन यक्ष की पूजा में लीन था तथा उसकी पत्नी बंधुमती दूसरी ओर फूल बीन रही थी। इतने में उसी नगर में रहने वाले छः मित्र वहाँ बगीचे में आ गए। ये छहों वैसे ही दुरात्मा थे और यहाँ बंधुमती को देखकर इन पर कामुकता का नशा बुरी तरह से छा गया। अपना विवेक वे पूर्ण रूप से खो बैठे। आव देखा न ताव, अर्जुन को उसी यक्ष की प्रतिमा से ही बाँधकर बंधुमती से बलात्कार करने लगे। अपनी स्त्री का यों पतन अपनी आँखों के सामने भला कौन देख सकता है? अर्जुन में आक्रोश बुरी तरह से उमड़ पड़ा और लगा यक्ष की प्रतिमा को आड़े हाथों कोसने। रोषारुण होकर कहने लगाµरे यक्ष! बचपन से तेरी सेवा करता आया हूँ, तूने मेरी सेवा ही ली पर बदले में दिया यह पतन। जो एक पशु भी नहीं देख सकता। या तो मेरी सहायता कर अन्यथा---
अर्जुन का यों उलाहना सुनकर यक्ष ने अर्जुन के शरीर में प्रवेश किया। तब पौरुष तो बढ़ना ही था। उसने अपने बंधन कच्चे धागे के समान तोड़ दिए और उसी यक्ष की प्रतिमा में लगे मुद्गर को लेकर अर्जुन उन छहों की ओर लपका। उन छहों मित्रों को व बंधुमती को समाप्त कर दिया; पर फिर भी अर्जुन का क्रोध शांत न हुआ। उन्हें मारकर नगर की ओर दौड़ गया, जो भी मिला उसे मारने लगा। नगर में हाहाकार मच गया। राजा को पता लगते ही नगर के द्वार बंद करवा दिए गए। अर्जुन हाथ में यक्ष का मुद्गर लिए नगर की चहारदीवारी के बाहर घूमता रहता और वहाँ जो कोई भी मिलता उसे यमलोक पहुँचा देता। यों पाँच महीने तेरह दिन तक यक्षावेष्टित अर्जुन वहाँ घूमता रहता और ग्यारह सौ इकतालीस मनुष्यों को समाप्त कर दिया। मरने के भय से नगर के बाहर निकलने की कोई हिम्मत नहीं करता था।
उसी समय भगवान् महावीर वहाँ पधारे। यों राजगृह की संपूर्ण जनता तथा राजा श्रेणिक भी भगवान् के दर्शन-वंदन के इच्छुक थे; परंतु अर्जुनमाली के आतंक के कारण उनका साहस नगर के द्वार खोलने का नहीं हो रहा था। भगवान् का परम भक्त सुदर्शन सेठ, भगवान् के दर्शनार्थ लालायित हो उठा। सुदर्शन सेठ के अंतद्र्वन्द्व ने बाहर वाले भय की अवगणना करने पर उसे उतारू कर दिया। अत्याग्रह करके राजा की आज्ञा लेकर नगर से बाहर निकला। अर्जुन ने ज्यों ही देखा, मुद्गर लिए उसकी ओर दौड़ा। सुदर्शन मरणांतक कष्ट समझकर सागारी अनशन ले ध्यानस्थ खड़ा हो गया। अर्जुन ने ज्यों ही सुदर्शन पर मुद्गर उठाया त्यों ही सुदर्शन के अमित आत्म-बल के सामने अर्जुन के शरीर में प्रविष्ट यक्ष उसके शरीर से निकलकर अपने स्थान को चला गया। लगभग छः महीनों से भूखा-प्यासा अर्जुन यक्ष के चले जाने पर मूच्र्छित होकर भूमि पर गिर गया। सुदर्शन ने साश्चर्य उसे देखा, प्रतिबोध दिया और भगवान् महावीर के पास ले आया। प्रभु के उपदेश से प्रभावित होकर अर्जुन ने अपने-आपको संभाला। अपने किए पर अनुताप करने लगा और मुनिव्रत स्वीकार कर लिया। मुनित्व स्वीकार करके बेले-बेले (दो-दो दिन) का तप उसने प्रारंभ कर दिया। भिक्षा के लिए जब नगर में घुसा तब उसे मुनि-रूप में देखकर लोगों का क्रोध उमड़ना सहज था। अपने पारिवारिक सदस्यों का हत्यारा समझकर मुनि पर कोई पत्थर बरसाने लगा, कोई तर्जना, ताड़ना तथा वचनों से आक्रोश देने लगा। अर्जुनमाली ने इस उपसर्ग को बहुत ही समता से सहा। वह क्षमा की साकार प्रतिमा ही बन गया तथा उत्कृष्ट तितिक्षा से सभी कर्मों का क्षय कर दिया। छह महीनों की श्रमण-पर्याय में पंद्रह दिन की संलेखना करके मोक्ष प्राप्त किया।

(क्रमशः)