मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

ध्यान और आसन
आसन साधना का एक अपरिहार्य अंग है। आचार्य कुंदकुंद का अभिमत है कि जो व्यक्ति आहार-विजय, निद्रा-विजय और आसन-विजय को नहीं जानता, वह जिनशासन को नहीं जानता। आसन-विजय का अर्थ है-एक आसन में घंटों तक बैठने का अभ्यास कर लेना।
महर्षि पतंजलि का अभिमत है कि आसन से द्वंद्व पर विजय प्राप्त की जा सकती है। द्वंद्व है-सर्दी-गर्मी आदि। आसन से कष्ट-सहिष्णुता की शक्ति विकसित होती है। इसलिए द्वंद्व आसनकर्ता को पराजित नहीं कर सकते।
आसन के वर्ग
अपेक्षाभेद से आसनों के दो वर्ग होते हैं-
प्रथम वर्ग-(1) खड़े होकर किए जाने वाले, (2) बैठकर किए जाने वाले, (3) लेटकर किए जाने वाले।
द्वितीय वर्ग-(1) शरीरासन, (2) ध्यानासन।

खड़े होकर किए जाने वाले आसन
समपाद
विधि-सीधे खड़े हो जाइए। गर्दन, पृष्ठवंश और पैर तक का सारा शरीर सीधा और समरेखा में रहे, इसका अभ्यास कीजिए। इसमें दोनों पैरों को सटाकर रखिए।
समय-कम से कम तीन मिनट और सुविधानुसार यह घंटों तक किया जा सकता है।
फल-(1) शारीरिक धातुओं का साम्य, (2) शुद्ध रक्त का संचार, (3) मानसिक एकाग्रता।

एकपाद
विधि-सीधे खड़े हो जाइए। उक्त विधि के अनुसार शरीर के सब अवयवों को समरेखा में ले आइए। फिर एक पैर को उठाकर सीधा फैला दीजिए। प्रारंभ में ऐसा करना कठिन होता है, इसलिए दीवार के सहारे खड़े होकर भी यह आसन किया जा सकता है।
समय-प्रारंभ में एक या दो मिनट। अभ्यास परिपक्व होने पर सुविधानुसार जितना किया जा सके।
फल-पैर, कमर, जंघा, पीठ और गले के स्नायुओं की शुद्धि।

गृध्रोड्डीन
विधि-पैरों को सटाकर सीधे खड़े हो जाइए। फिर कंधों की समरेखा में दोनों हाथों को फैला दीजिए। बीच-बीच में गीध के परों की भाँति दोनों भुजाओं को हिलाइए।
समय-इसके समय की निश्चित मर्यादा नहीं है। सुविधानुसार जितना किया जा सके, उतने समय तक यह करणीय है।
फल-(1) भुजा के स्नायुओं की शक्ति का विकास, (2) गर्दन के ऊपर के स्नायुओं की पुष्टि।

कायोत्सर्ग
प्रवृत्ति के तीन स्रोत हैं-काय, वाणी और मन। इसमें मुख्य काय है। वाणी और मन उसके माध्यम से ही प्रवृत्त होते हैं। काय के स्पंदनकाल में वाणी और मन प्रस्फुटित होते हैं। उसकी अस्पंद दशा में वे विलीन हो जाते हैं। भाषा और मन के परमाणुओं का ग्रहण काय के द्वारा होता है। फिर उनका भाषा और मन के रूप में परिणमन होता है और विसर्जन-काल में वे भाषा और मन कहलाते हैं। भाष्यमाणी भाषा होती है, पहले-पीछे नहीं होती, इसी प्रकार मन्यमान मन होता है, पहले-पीछे नहीं होता।
काय वाणी और मन की प्रवृत्ति का स्रोत है, इसीलिए उसकी निवृत्ति या स्थिरता वाणी और मन की स्थिरता का आधार बनती है। काय का त्याग होने पर वाणी और मन स्वयं त्यक्त हो जाते हैं।
शरीरशास्त्र की दृष्टि से शरीर की प्रवृत्ति और निवृत्ति के परिणाम इस प्रकार हैं-

प्रवृत्ति (श्रम) के परिणाम
(1) स्नायुओं में स्नायु शर्करा कम होती है।
(2) लेक्टिक एसिड स्नायुओं में जमा होता है।
(3) लेक्टिक एसिड की वृद्धि होने पर उष्णता बढ़ती है।
(4) स्नायु-तंत्र में थकान आती है।
(5) रक्त में प्राणवायु की मात्रा कम होती है।
निवृत्ति (आराम) के परिणाम
(1) लेक्टिक एसिड का पुनः स्नायु शर्करा में परिवर्तन होता है।
(2) लेक्टिक एसिड का जमाव कम होता है।
(3) लेक्टिक एसिड की कमी से उष्णता में कमी होती है।
(4) स्नायुतंत्र में ताजगी आती है।
(5) रक्त में प्राणवायु की मात्रा बढ़ती है।
स्वास्थ्य की दृष्टि से भी कायोत्सर्ग कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।

स्नायविक तनाव और कायोत्सर्ग
मन, मस्तिष्क और शरीर में गहरा संबंध है। उनकी सामंजस्य-विहीन गति से जो अवस्था उत्पन्न होती है, वही स्नायविक तनाव है। शरीर और मन की सक्रियता का संतुलन रहना, प्रवृत्ति की बहुलता या संकुलता, मानसिक आवेग-ये उसके मुख्य कारण हैं। हम जब-जब द्रव्य-क्रिया करते हैं अर्थात् शरीर को किसी दूसरे काम में लगाते हैं और मन कहीं दूसरी ओर भटकता है, तब स्नायविक तनाव बढ़ता है। हम भावक्रिया करना सीख जाएँ-शरीर और मन को एक ही काम में संलग्न करने का अभ्यास कर लें तो स्नायविक तनाव बढ़ने का अवसर ही न मिले।
जो लोग इस स्नायविक तनाव के शिकार होते हैं, वे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से वंचित रहते हैं। वे लोग अधिक भाग्यशाली हैं, जो इस तनाव से मुक्त रहते हैं।
तनाव उत्पन्न करने में भय का भी बड़ा हाथ है। अध्यात्मवादियों ने उसके सात प्रकार बतलाए हैं-
(1) इहलोक भय-मनुष्य को अपनी ही जाति-मनुष्य से होने वाला भय।
(2) परलोक भय-मनुष्य को विजातीय-पशु आदि से होने वाला भय।
(3) आदान भय-धन-विनाश का भय।
(4) अकस्मात् भय-काल्पनिक भय।
(5) आजीविका भय-आजीविका कैसे चलेगी-इस प्रकार का भय।
(6) मरण भय-मृत्यु का भय।
(7) अश्लाघा भय-अपयश का भय।
ये भय मनुष्य के जीवन में व्याप्त रहते हैं। इनके द्वारा वह स्नायविक तनाव से बुरी तरह आक्रांत होकर अशांतिमय जीवन जीता है। जिसने अभय की आराधना की है, उसे कोई कष्ट नहीं होता। भयभीत व्यक्ति पल-पल में कष्ट पाता है। जिसने अभय की आराधना की है, वह जीवन में एक बार मरता है। भयभीत मनुष्य एक दिन में कई बार मरता है। भय और हिंसा में गहरा लगाव है। जहाँ भय है, वहाँ निश्चित रूप से हिंसा है। मन को अभय किए बिना अहिंसा हो ही नहीं सकती।
अनियंत्रित भय से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। मनोविज्ञान का सिद्धांत है कि वियोग का भय जागृत होने पर मनुष्य स्नायु-विकार से ग्रस्त हो जाता है। वह दूसरों पर अत्याचार करने व उन्हें अपंग बनाने में रस लेता है।
येल विश्वविद्यालय ने भय से संबंधित कुछ निष्कर्ष प्रस्तुत किए थे। उन्हें पढ़कर हम समझ सकते हैं कि भय हमारे शरीर और मन को कितना प्रभावित करता है। भय से ये शारीरिक परिवर्तन देखे जाते हैं-दिल का धड़कना, नाड़ी का तेज चलना, मुँह या गला सूखना, काँपना, हथेलियों में पसीना आना और पेट का अंदर धँसना। मन पर भी गहरी प्रतिक्रियाएँ होती हैं। जैसे-विस्मृति, मूच्र्छा और पीड़ा की तीव्र अनुभूति होना।
स्थानांग सूत्र में असामयिक मृत्यु के सात कारण बतलाए गए हैं। उनमें भयात्मक अध्यवसाय उसका एक कारण है।
रोग के भय से पीड़ा बढ़ जाती है। निर्भय रोगी की अपेक्षा भयाक्रांत रोगी को पीड़ा की अनुभूति कई गुना अधिक होती है। मानसोपचारकों ने रोग-पीड़ित व्यक्तियों पर शिथिलीकरण के प्रयोग किए। उनसे उनकी पीड़ा में बहुत अंतर आया। भय से स्नायविक तनाव बढ़ता है। उससे पीड़ा तीव्र हो जाती है और कायोत्सर्ग से वह कम होता है, तब पीड़ा भी कम हो जाती है।
क्रोध, अभिमान, माया, लोभ, राग, द्वेष, घृणा, शोक आदि मानसिक आवेगों से भी स्नायविक तनाव बढ़ता है। कायोत्सर्ग से उन आवेगों का शमन होता है और फलतः स्नायविक तनाव अपने आप दूर हो जाता है।

(क्रमशः)