संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

आचार्य महाप्रज्ञ

बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(40) संशयं परिजानाति, संसारं परिवेत्ति सः।
संशयं न विजानाति, संसारं परिवेत्ति न।।
जिसमें संशय-जिज्ञासा है, वह संसार को जानता है। जिसमें जिज्ञासा का अभाव है, वह संसार को नहीं जानता।
जिज्ञासा हमारे ज्ञान-परिवर्धन की कुंजी है। वह बौद्धिकता की सूचना करती है। जिसमें जिज्ञासा नहीं है, उसमें ज्ञान का विकास भी नहीं है। जिज्ञासा को दबाने का अर्थ है ज्ञान को कटघरे में बंद रखना।

(41) पूर्वोत्थिताः स्थिरा एके, पूर्वोत्थिताः पतन्त्यपि।
नोत्थिता न पतन्त्येव, भंङ्गः शून्यश्चतुर्थकः।।
कुछ पहले साधना के लिए उद्यत होते हैं और अंत तक उसमें स्थिर रहते हैं। कुछ पहले साधना के लिए उद्यत होते हैं और बाद में गिर जाते हैं। कुछ साधना के लिए न उद्यत होते हैं और न गिरते हैं। इसका चतुर्थ भंग शून्य होता हैµबनता ही नहीं।
व्यक्ति तीन प्रकार के होते हैंµ(1) पूर्वोत्थित और पश्चाद् स्थित, (2) पूर्वोत्थित और पश्चाद् निपाती, (3) न पूर्वोत्थित और न पश्चाद् निपाती।
आत्मा पर पूर्व-संस्कारों का गहरा प्रभाव होता है। अच्छे संस्कार व्यक्ति को सहजतया अच्छाई की ओर खींच लेते हैं और बुरे संस्कार बुराई की ओर। शुभ संस्कारी व्यक्ति ही साधना पर आरूढ़ हो सकते हैं, अशुभ संस्कारी नहीं। साधना के लिए पवित्रता ही पहली शर्त है। अशुभ संस्कारी व्यक्ति में वह नहीं होती।
शुभ संस्कारी साधना-पथ पर आने के बाद अपने संस्कारों को और अधिक पवित्र और सुदृढ़ बनाते चलते हैं। अतः वे अपने मार्ग से कभी विचलित नहीं होते। जो साधना-क्षेत्र में प्रविष्ट होकर संस्कारों का निर्माण नहीं करते वे अशुभ संस्कारों के झंझावात में अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख पाते। वे साधना से परे हट जाते हैं। जिनके संस्कारों में अशुभता की प्रबलता होती है, वे न साधना में आते हैं और न गिरते हैं। गिरते वे हैं जो चलते हैं। नहीं चलने वाले क्या गिरेंगे। (क्रमशः)