उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य तुलसी

अभयकुमार

अभयकुमार राजगृह के महाराज श्रेणिक की रानी नंदा का पुत्र था। महाराज श्रेणिक ने अपने पाँच सौ प्रधानों में अभयकुमार को मुखिया बनाया। अभयकुमार अपनी बुद्धिमत्ता, निपुणता व कर्तृत्व के बल पर सारी जनता का प्रिय बन गया। अनेक अपराधियों को अपने बुद्धि-कौशल से खोज-खोजकर उसने उन्हें उचित दंड दिलवाया और जनता को निश्चिंत कर दिया। धारिणी, चेलणा आदि विमाताओं के दोहद भी अपने तप और युक्ति से पूरे करके उन्हें संतुष्ट किया।
वैशाली नगर के महाराज चेटक की यह प्रतिज्ञा थी कि वे अपनी किसी भी पुत्री की शादी किसी विधर्मी राजा के साथ नहीं करेंगे। महाराज श्रेणिक की इच्छा हुई कि मैं महाराज चेटक की पुत्री सुज्येष्ठा से शादी करूँ। सुज्येष्ठा भी महाराज श्रेणिक के प्रति आकर्षित थी। इस चिंता को भी अभयकुमार ने अपनी कुशलता से मिटाने का प्रयत्न किया और सुज्येष्ठा का हरण होµऐसा साज-बाज बनाया। लेकिन ऐन वक्त पर सुज्येष्ठा पीछे रह गई और उसके बदले उसकी छोटी बहन चेलणा का हरण और उसके साथ ही राजा का पाणिग्रहण हुआ।
भगवान महावीर का उपदेश सुनकर अभयकुमार संयम लेने को उत्सुक हुआ और पिता से आज्ञा चाही। महाराज श्रेणिक ने अभयकुमार को राज्य सौंपना चाहा पर अभयकुमार का आग्रह संयम के लिए ही रहा। तब राजा ने कहाµजब मैं तुझे ‘जा’ कह दूँ तब दीक्षा ले लेना।
एक बार ऐसा प्रसंग बना कि चेलणा ने उद्यान में एक मुनि को ध्यान में खड़े देखा। रात के समय राजा और रानी सोये थे। सर्दी बहुत अधिक थी। रानी का हाथ कंबल से बाहर रह गया और ठंड से ठिठुर गया। नींद में ही रानी के मुँह से निकलाµ‘उसका क्या हाल होगा?’ राजा चैंका और शंका का शिकार हो गया। राजा सोचने लगाµहो न हो, रानी किसी अन्य पुरुष पर मुग्ध है। उसकी चिंता के लिए ऐसा कह रही है कि उसका क्या हाल होगा? राजा का मन फट गया और अभयकुमार को प्रातः आदेश दिया कि चेलणा के महलों को जला दो। यों आदेश देकर श्रेणिक भगवान का उपदेश सुनने चला गया। भगवान ने राजा के संशय को मिटाने के लिए प्रसंगवश कहाµमहाराज चेटक की सातों पुत्रियाँ सती हैं। यह सुनकर श्रेणिक चैंका और अपने किए पर अनुताप करने लगा।
इधर अभयकुमार ने बहुत ही चातुर्य से काम लिया और महारानी के महलों के पास फूस की झौंपड़ियाँ जलाकर प्रभु के दर्शनार्थ चल पड़ा। वह भी इसलिए कि मुनित्व के आदेश की प्राप्ति के लिए यही सर्वथा उपयुक्त है। उधर समवसरण से लौटते हुए श्रेणिक ने दूर से महलों से उठता हुआ धुआँ देखा तो विह्वल हो उठा और सामने से अभयकुमार आता हुआ मिला तब श्रेणिक ने गुस्से से कहाµ‘जा रे जा।’ अभयकुमार को और क्या चाहिए था? प्रभु के पास पहुँचकर सारी स्थिति कही और संयम धारण कर लिया। पाँच वर्ष तक संयम का पालन कर विविध तपस्याओं के द्वारा कर्मों के भार को हलका किया। फिर आयुष्य पूर्ण कर विजय नामक अनुत्तर विमान में पैदा हुआ। वहाँ से महाविदेह में मनुष्य बनकर संयम का पालन करके मोक्ष प्राप्त करेगा।
महाराज श्रेणिक को अभयकुमार की दीक्षा से एक अमिट आघात लगा; क्योंकि वैसा बुद्धिमान मंत्री उसको मिलना कठिन था।
जैन परंपरा में आज भी, दीपमालिका के दिन पूजन करते समय बहियों में लिखते हुए याचना की जाती हैµ‘अभयकुमार जैसी बुद्धि।’
(क्रमशः)