मोक्ष प्राप्ति के लिए दया धर्म का पालन करें: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

मोक्ष प्राप्ति के लिए दया धर्म का पालन करें: आचार्यश्री महाश्रमण

शाहीबाग-अहमदाबाद, 24 मार्च, 2023
क्षमामूर्ति आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि आदमी के मोह कर्म का औदयिक भाव रहता है, तो क्षायोपशमिक भाव भी होता है। औदयिक भाव और क्षायोपशमिक भाव में कई बार संघर्ष भी चलता है। कभी हमारा क्षायोपशमिक भाव प्रबल हो जाता है, तो मोहनीय कर्म को पछाड़ने का कार्य कर लेता है। कभी मोहनीय कर्म प्रबल होता है, तो क्षायोपशमिक भाव मानो कुछ निस्तेज-सा हो जाता है। यह भीतर का मानो युद्ध-संघर्ष है। यह संघर्ष चलते-चलते कभी मोहनीय कर्म सर्वथा क्षीण भी हो सकता है। मोहनीय कर्म क्षीण यानी कर्मों के सेनापति का नाश हो गया है। मोहनीय कर्म है तो आदमी के भीतर हिंसा-आक्रोश, निष्ठुरता के भाव प्रस्फुटित हो सकते हैं। मोहनीय कर्म विलय की स्थिति में आगे बढ़ता है, तो आदमी में दया, अनुकंपा, मैत्री और अहिंसा के भाव भी विकसित होते हैं।
अनुकंपा आदमी का एक अच्छा गुण होता है। अनुकंपा का अर्थ है, दूसरे को दुःख-पीड़ा नहीं देना। किसी की आध्यात्मिक सेवा हो तो अच्छा है। किसी के कार्य में सलक्ष्य पीड़ा देना, बाधा डालने का प्रयास न करें। यह अनुकंपा का एक भाग है। दूसरा भाग है-दूसरों के दुखों को दूर करने, साता पहुँचाने, चित्त समाधि पहुँचाने, आध्यात्मिक शांति पहुँचाने में योगदान देना। आध्यात्मिक सेवा अनुकंपा ही है, साथ में मैत्री हो तो अनुकंपा परिपूर्ण हो सकती है। हम पापों से बच सकते हैं। निष्ठुर आदमी पाप कार्य ज्यादा करता है। दया-कल्याण को करने वाली, दुखों को दूर करने वाली और संसार सागर से तरने वाली नाव होती है। यह भगवान महावीर और मुनि मेघ के प्रसंग से समझाया।
पूर्वकृत पुण्य जीव की रक्षा करते हैं। मेघकुमार ने हाथी के भव में खरगोश पर अनुकंपा की थी, ऐसी दया-अनुकंपा हम सबके भीतर पुष्ट हों। पाप आचरणों से अपनी आत्मा को बचाना भी दया है। तीर्थंकर भी प्रवचन जीवों के कल्याण के लिए करते हैं। प्रवचन भी इस भावना से किया जाए कि दूसरों को ज्ञान-बोध मिले, अच्छी दिशा में आगे बढ़ें। किसी के आध्यात्मिक कल्याण के लिए आध्यात्मिक सेवा करना दया-मैत्री ही है। छोटे-छोटे प्राणियों के प्रति दया का भाव हो। दया धर्म का पालन कर हम मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। कन्या मंडल द्वारा 18 पापों पर प्रस्तुति हुई तो पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाते हुए कहा कि जयाचार्य की पुरानी तत्त्व-ज्ञान की गीतिकाओं को कंठस्थ किया जाए। ज्ञानशाला भी प्राइमरी स्कूल के समान है।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने कहा कि जो व्यक्ति हल्का होता है, वह ऊर्ध्वगमन करता है और जो भारी होता है, वह अधोगति को प्राप्त कर सकता है। जो हल्का होता है, वो भगवान और जो भारी हो वह शैतान बन सकता है। हमें परमात्मा बनना है, हल्का बनना है। 18 पापों से उपरत जीव हल्का बन जाता है। हर व्यक्ति में परमात्मा भी है और शैतान भी है। हमें हमारे परमात्मत्व को जागृत कर हल्का बनना है। इसके लिए हमारे कषाय प्रतनू बनें। ध्यान-स्वाध्याय के अभ्यास से आत्मा कल्याण की दिशा में आगे बढ़ सकती है।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने कहा कि मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है उसकी जबान। हमें शांत सहवास का पथ चुनना है, तो हमें वाणी का संयम रखना होगा। वाणी को संयमित रखने के लिए अनावश्यक न बोलें, ऊँची भाषा और कम से कम बोलें। कब बोलें, कहाँ बोलें, उसका विवेक रखें। मीठी वाणी बोलें और कषायमुक्त भाषा बोलें। भाषा से ही व्यक्ति की जाति और कुल की पहचान होती है। पूज्यप्रवर की अभिवंदना में स्थानीय महिला मंडल अध्यक्षा चांद छाजेड़ एवं प्रवास व्यवस्था समिति से विजयराज सुराणा ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी। कन्या मंडल की 18 पापों पर सुंदर प्रस्तुति हुई। ज्ञानशाला प्रशिक्षिकाओं ने गीत की प्रस्तुति दी। पूज्यप्रवर ने वर्तमान में वर्षीतप करने वाले भाई-बहनों को प्रत्याख्यान करवाए। राजस्थानी भाषा और संस्कृति प्रचार मंडल द्वारा नववर्ष का कैलेंडर पूज्यप्रवर को उपहृत किया गया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।