बाल पीढ़ी को संस्कारवान बनाने का महत्त्वपूर्ण उपक्रम है ज्ञानशाला : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 29 अगस्त, 2021
तीर्थंकर के प्रतिनिधि, आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि ठाणं आगम में दस प्रकार का श्रमण धर्म बताया गया है। पाँचवाँ धर्म हैलाघव-हल्कापन। हमारा जीवन बाह्य सामग्री का लाघव, साधुओं की दृष्टि से उपकरणों की अल्पता। यह सामान्यतया श्रेयस्कर है। अनावश्यक उपकरण न रहे। उपकरण परिग्रह का रूप न लें, यह धातव्य है।
तीन गौरव बताए गए हैंरिद्ध गौरव, रस गौरव, सात गौरव। इन तीन गौरवों का भी ध्यान रखें। साधु संयम रखे। जो उपकरण है, उनके प्रति लेखन भी नियमित होता रहे। छठा धर्म हैसत्य। ॠजुता सच्चाई से जुड़ा हुआ तत्त्व है। सच्चाई के लिए मितभाषिता भी अपेक्षित है। छलकपट मन में न हो। आर्जव और सत्य भाई-भाई हैं। पारस्परिक दोनों का संबंध है। सत्य की आत्मा हैमृषावाद से विरमण। हर सत्य बोलना जरूरी नहीं है। मृषावाद नहीं करना यह मूल है सत्य का। हर सच्चाई को हर जगह प्रगट करना अपेक्षित नहीं है।
सारी आँखों से देखी हुई और सारी कानों से सुनी हुई बातें बाजार में बेचने की नहीं होतीं। जहाँ अपेक्षित हो कथन-प्रगटीकरण किया जा सकता है। झूठ नहीं बोलना यह सत्य के लिए आवश्यक है। गार्हस्थ्य में भी झूठ बोलना जरूरी नहीं है। सातवाँ धर्म हैसंयम। हिंसा आदि से निवृत्ति, पापों से निवृत्ति, रहन-सहन सबमें संयम। अणुव्रत की आत्मा संयम है। अहिंसा-नैतिकता के आधार में भी संयम को देखा जा सकता है।
आठवाँ धर्मतप, तपस्या करना। मुंबई में मुनि अजित कुमार जी महासर्वतोभद्र तपस्या कर रहे हैं, ऐसी जानकारी मिली है। मुनि नमि कुमार जी ने इंदौर में 60 दिन से अधिक की तपस्या की। गृहस्थ भी तपस्या करते हैं। मुनि पारस जी के भी तपस्या चल रही है। तपस्या के बारह भेद स्वाध्याय-ध्यान आदि हैं।
नौवाँ धर्म हैत्याग। अपने साम्योगिक साधुओं को भोजन आदि का दान देना। यह साधु के लिए त्याग धर्म है।
दसवाँ धर्म हैब्रह्मचर्यवास, काम-भोग विरति। खाद्य-संयम, दृष्टि संयम रखना। अरागता का भाव रहे।
ये दस श्रमण धर्म बताए गए हैं। गृहस्थ जितना हो सके करें, पर साधु तो विशेषतया इन धर्मों का पालन करें। दिगंबर परंपरा में तो दस लक्षण पर्व होता है। चीज तो एक ही है, मात्रा भेद हो सकता है। साधु-गृहस्थ दोनों के काम के हैं। ये दस धर्म साधु संस्था व श्रावक-श्राविकाओं के लिए कल्याणकारी हैं। जितना पालन करेगा उतना लाभ मिल सकेगा।
पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि जब व्यक्ति की गृद्धा-मूर्च्छा खत्म हो जाती है, तब व्यक्ति लाघव का विकास करता है। श्रमण निर्ग्रन्थ के लिए लघुता प्रशस्त हो। लाघव गुण का विकास हो।
साध्वीप्रमुखाश्री जी ने कहा कि क्रोध-मान, माया और लोभ ये चार कषिण-कषाय हैं। मानसिक संकलेश पैदा करने वाले कषाय हैं। जिससे आदमी भटक जाता है। आत्मा कर्म-रजों से लिप्त हो जाती है, इस कारण व्यक्ति अपना संतुलन सहज रूप से खो देता है। धर्म की साधना करनी है, तो इन पर नियंत्रण करना होगा। ज्ञानशाला के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि उदित कुमार जी ने ज्ञानशाला दिवस पर अपना वक्तव्य दिया।
ज्ञानशाला ज्ञानार्थी एवं प्रशिक्षिकाओं की सुंदर प्रस्तुति हुई। व्यवस्था समिति मंत्री नीतू सुतरिया, राजेंद्र ओस्तवाल, डॉ0 महेंद्र कर्णावट, टीपीएफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष नवीन पारख, सीमा डागा ने अपने भावों की अभिव्यक्ति श्रीचरणों में रखी।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि श्रद्धा और भय में फर्क होता है।