उपासना
(भाग - एक)
आचार्य तुलसी
दशार्णभद्र
दशार्णभद्र राजा दशार्णभद्र देश का अधिपति था। यह भगवान् महावीर का परम भक्त था। उसके यह नियम था कि ‘भगवान् महावीर आज अमुक स्थान पर सुखसाता से विराजमान हैं-यह संवाद सुनकर ही भोजन करना।
एक बार भगवान् महावीर ‘दशार्णाभद्रपुर’ में पधारे। राजा ने सोचा कि मैं भगवान् के दर्शन करने ऐसे ऐश्वर्य के साथ जाऊँ जैसे ऐश्वर्य से आज तक कोई न गया हो। उसी के अनुरूप साज-सज्जा से राजा दर्शनार्थ गया। अपने वैभव पर मन ही मन इतना रहा था। अवधिज्ञान से सौधर्मेन्द्र ने राजा के भावों का परिज्ञान किया तो वह राजा का मान भंग करने चल पड़ा। इंद्र ने अपनी वैक्रियशक्ति से एक बहुत बड़ा हाथी बनाया, जिसके पाँच सौ मुँह थे। प्रत्येक मुँह में आठ-आठ दंतशूल, प्रत्येक दंतशूल पर आठ-आठ विशाल बावड़ियाँ बनाईं। प्रत्येक बावड़ी में लाख पंखुड़ियों वाला कमल का फूल तथा फूल की प्रत्येक पंखुड़ी पर बत्तीस प्रकार के नाटक हो रहे थे। ऐसे हाथी पर सवार होकर इंद्र महाराज प्रभु के दर्शनार्थ आए।
जब इंद्र राजा दशार्णभद्र के सामने से जाने लगा तो राजा ने सोचा-इसके सामने तो मेरी ऋद्धि कुछ भी नहीं है।
अपने से अधिक को देखकर व्यक्ति को अपनी सही स्थिति का ज्ञान हो जाता है। हंत! हंत! मैं व्यर्थ ही इतराया। अब मैं अपने मान की रक्षा कैसे करूँ? सोचा, हो न हो, यह सब देव माया है। उसे परास्त करने और अपना स्वत्व सुरक्षित रखने के लिए प्रभु के पास आकर मुनि बन गया।
यह सामर्थ्य शक्रेन्द्र में कहाँ? उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार की। दशार्णभद्र के पैरों में पड़कर इस अद्भुत त्याग की मुक्तकंठ से स्तवना करते हुए क्षमायाचना की। दशार्णभद्र मुनि अपने उत्कट तप के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में पधारे।
श्रमणोपासक आनंद
भगवान् महावीर के प्रमुख श्रावक का नाम ‘आनंद’ था। उसने भगवान् महावीर से श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किए। उसकी प्रेरणा से उसकी धर्मपत्नी शिवानंदा ने भी श्राविका व्रत ग्रहण किए।
वह ‘वाणिज्य’ ग्राम के निकट ‘कीलाक सन्निवेश’ में रहने वाला ‘पटेल’ जाति का था, पर था समृद्ध। उसकी समृद्धि इससे ही आँकी जा सकती है कि उसके पास बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ तथा चालीस हजार गाएँ थीं।
अपने व्रतों का सानंद और सकुशल पालन करते-करते उसने आमरण अनशन किया। अनशन में उसे भावों की विशुद्धता से विपुल अवधिज्ञान प्राप्त हुआ।
उन्हीं दिनों भगवान् महावीर भी वहाँ पधारे। गौतम स्वामी पारणे के लिए गाँव में आए। जब उन्होंने आनंद श्रावक के अवधिज्ञान की चर्चा सुनी तो उसके यहाँ पधारे। आनंद ने वंदना करके पूछा-‘भगवन्! क्या अनशन में गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है?’
‘हाँ, हो सकता है।’ गौतम गणधर ने बताया।
आनंद ने कहा-‘भगवन्! मुझे भी अवधिज्ञान हुआ है। मैंने पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में पाँच सौ योजन लवण समुद्र के अंदर तक, उत्तर में चूल हिमवन्त पर्वत तक तथा ऊपर सौधर्म स्वर्ग और नीचे प्रथम नरक के लौलुच्य नामक नरकवास को जाना-देखा है।’
गौतम सुनकर चौंके और बोले-‘गृहस्थ को इतना विपुल अवधिज्ञान नहीं हो सकता है। तुम्हारा यह मिथ्याभाषण हुआ है। इसलिए इसकी आलोचना करो।’
आनंद ने विनम्र स्वर में पूछा-‘प्रायश्चित्त सत्य का होता है या मिथ्या का?’
‘असत्य का।’
‘तब तो भगवन् आप ही ऐसा करिये।’
आनंद की दृढ़तापूर्वक बात सुनकर गौतम महावीर के पास आए। सारी बात कही। महावीर ने कहा-‘हाँ, उसे उतना ही अवधिज्ञान हुआ है। तुम्हारे द्वारा ही असत्य भाषण हुआ है। अतः आनंद से क्षमा-याचना करो।’
गौतम तुरंत आनंद के पास आए और उसे सत्य बताते हुए कहा-‘मैं वृथा विवाद के लिए तुमसे क्षमा-याचना चाहता हूँ।’
आनंद से सविनय क्षमा-याचना करके गौतम ने अपनी महानता का परिचय दिया।
यों आनंद श्रावक ने बीस वर्ष तक श्रावक-व्रतों का पालन किया। अंत में एक महीने का समाधिपूर्वक अनशन करके प्रथम स्वर्ग में पैदा हुआ। वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जाकर मोक्ष में जाएगा। (क्रमशः)