अभिवंदना तेजस्वी संन्यास की
भारतीय संस्कृति ऋषियों की संस्कृति रही है। इसकी दो प्रमुख धाराएँ हैं-वैदिक संस्कृति और श्रमण संस्कृति। वैदिक संस्कृति में जीवन के ऊर्ध्वारोहण के लिए चार आश्रमों की व्यवस्था है-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास, जिसमें ‘योगेनान्ते तनुत्यजाम्’ का स्वर बुलंद रहा है। श्रमण संस्कृति में जैन परंपरा निवृत्तिप्रधान है। इसने संन्यास आश्रम को महत्त्व दिया है।
प्रश्न होता है कि संन्यास कब लिया जाए? वेदों में संन्यास आश्रम व्यवस्था से भिन्न भी एक चिंतन प्राप्त होता है-यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्। जिस दिन मन संसार से विरक्त हो जाए, उसी दिन दीक्षित हो जाना चाहिए। जैन परंपरा में भी यही मान्यता है। भगवान् महावीर के पास कोई वैरागी आता तो उनका एक ही निर्देश रहता ‘अहासुहं देवागुप्पिया! मा पडिबंधं करेह’-देवानुप्रिय! तुम जैसा चाहो करो। विलंब मत करो! अहिंसा, संयम और तप की चेतना का जागरण होने पर साधक मोक्ष मार्ग की दिशा में प्रस्थित हो जाता है, किंतु जीवन के प्रभात काल में, शैशव अवस्था में इस साधना में संलग्न हो जाना, इंद्रिय और मन के निग्रह में रत हो जाना विशिष्ट बात है। बचपन के कोमल व ग्रहणशील मस्तिष्क में सुसंस्कारित अध्यात्म के बीज का वपन हो जाए तो जीवन को दिशा और गति उपलब्ध हो जाती है। इसी आशय से जैन परंपरा में साधिक आठ वर्ष में संन्यास जीवन में प्रवेश मान्य किया गया है।
संन्यास को स्वीकार करना जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना है। उस संन्यास को सूर्य के समान प्रकाशवान, दीप्तिमान और तेजस्वी बनाना दिव्यता की अभिव्यक्ति का लक्षण है। खेत में केवल बीज के वपन मात्र से कार्य संपन्न नहीं होता, अपितु अपेक्षानुसार प्रकाश, पानी व पुरुषार्थ की युति ही सम्यक् निष्पत्ति ला सकती है। इसी प्रकार संन्यास जीवन में प्रवेश करने के पश्चात् साधना के विविध आयामों का दीर्घकालीन अभ्यास तेजस्विता को प्रवर और प्रखर बनाता है। इसका जीवंत निदर्शन है जैन श्वेतांबर तेरापंथ के उज्ज्वल, ऊर्जस्वल, तपोमय व तेजोमय ग्यारहवें पट्टधर आचार्य महाश्रमणजी।
बालक मोहन ने उदीयमान दिनकर तुल्य सौम्य आभा के साथ साधिक बारह वर्ष की अल्पायु में तेरापंथ धर्मसंघ में दीक्षित होकर आत्मारोहण की दिशा में चरणन्यास किया। वर्धमान अवधिज्ञान की तरह श्रमण मुदित की साधना बढ़ती रही। अंतर्मुखी और ऊर्ध्वमुखी व्यक्तित्व से निखरते तेजस्वी संन्यास ने आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ के हृदय में विश्वास का दीप प्रज्वलित कर दिया। फलस्वरूप उन्होंने मुनि मुदित को उच्च पद पर आसीन कर दिया। श्रमण से महाश्रमण बना दिया। संघ शिरोमणि आचार्य महाश्रमणजी का संन्यास तेजस्वी संन्यास है, जिसके मूल में है-उनकी निवृत्ति मार्ग की साधना। महाव्रत के महापंथ पर गति करते हुए उन्होंने इस पद्य को चरितार्थ किया है-
‘नहीं किसी सूं नेह, देह का सुख नहीं चाहे।
सीत उसन सिर सहै, आदि अन्त एसी निर्वाहे।।’
उनकी निःसंगता, निर्लिप्तता, अनासक्ति, तटस्थता, जागरूकता व अहिंसा, संयम, तप से भावित हर सांस ने उनके संन्यास को तेजस्वी बनाया है। उनके संन्यास की तेजस्विता में हेतुभूत कई तथ्य हैं, उनमें से कुछ बिंदु यहाँ उल्लिखित हैं।
दर्शनाचार से दर्शन विशोधि
आचार्य के संन्यास की तेजस्विता उत्तरोत्तर निखार पा रही है। इसका पहला हेतु है-दर्शनाचार। आचार्य महाश्रमणजी की अर्हत-भक्ति एवं गुरु-भक्ति अनिर्वचनीय है। अर्हत-आज्ञा की सम्यक् अनुपालना ही आचार्य महाश्रमणजी की अर्हत आराधना है, आगम-वाणी पर सुदृढ़ श्रद्धा उनकी अर्हत-उपासना है। साथ ही भिक्षु परंपरा से प्राप्त सिद्धांत, मान्यता और मर्यादाओं का संघ में सम्मान और समाचरण उनकी गुरु-भक्ति है। आंधी में वृक्ष उखड़ सकते हैं, भूकंप में पर्वत हिल सकते हैं, किंतु आचार्य महाश्रमणजी की अर्हत-भक्ति और गुरु-भक्ति अविचल है, अप्रकंप है। यही राज है उनकी दर्शन विशोधि का। यह दर्शन की विशुद्धि उनके संन्यास को तेजस्वी बना रही है। दर्शन को पुष्ट करने के लिए आचार्यप्रवर बारह व्रती श्रावक और सुमंगल साधना करने वाले साधक-साधिकाओं को तैयार कर रहे हैं। अपने प्रवचनों में भी सम्यग्-दर्शन को व्याख्यायित करते रहते हैं।
अद्भुत है ज्ञान का आलोक
आचार्य महाश्रमणजी के तेजस्वी संन्यास का दूसरा आधार है-ज्ञान का आलोक। दादूदयाल के शब्दों में कहें तो-
‘आतम के आस्थान हैं, ज्ञान, ध्यान बेसास।
सहज सील संतोष सत, भाव भगति निधि पास।।’
ज्ञान के साथ जुड़ी आचार्यश्री महाश्रमणजी की निर्मलता, उदारता व नित्य नवीनता उनकी आभा व प्रभा को प्रकृष्टता प्रदान करने वाली है। उनके ज्ञान के निर्मल पर्यव स्मृति-सौष्ठव का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। दीपक प्रकाश फैलाता है। आचार्य महाश्रमणजी का ज्ञान प्रदीप सहस्रों भव्य आत्माओं के भीतर निर्मल ज्ञान प्रदीपों को प्रज्वलित करने वाला है।
श्रुत की अविच्छिन्न परंपरा के संवाहक आचार्यश्री महाश्रमणजी संघ के हर सदस्य को ज्ञानाराधना की प्रेरणा प्रदान करते हैं। उन्हें ज्ञान-संपन्न बनाने के लिए अपने समय व शक्ति का नियोजन करते हैं। भीलवाड़ा चातुर्मास में साधु-साध्वियों की ज्ञान-चेतना के विकास हेतु प्रशस्त क्रम शुरू हुआ। महाश्रमणी साध्वी प्रमुखाश्री साध्वियों के साथ सूर्योदय के समय पूज्यवर के प्रवास स्थल पर दर्शनार्थ पधारते थे। आचार्यवर को वंदन करते ही ज्ञानाराधना का क्रम प्रारंभ हो जाता। आचार्यश्री भिक्षु द्वारा रचित नव पदार्थ की वाचना व जिज्ञासा-समाधान का उपक्रम श्रोताओं को तत्त्वज्ञान की गहराई में ले जाने का निमित्त बना। उसी चातुर्मास में भिक्षु-दर्शन कार्यशाला ने तेरापंथ की मान्यताओं को युगीन संदर्भों के साथ समझने का अवसर दिया। मध्याह्न में आचार्यवर की सन्निधि में तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी के वाचन का क्रम चल रहा है। वह क्रम संभवतः विराटनगर (नेपाल) में प्रारंभ किया था। उस समय महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी की उपस्थिति रहती थी। तब से शुरू किया गया वह वाचन वर्तमान में भी चल रहा है। इस अध्यापन में परमपूज्य आचार्यवर की व्यस्तता के कारण बीच-बीच में अवकाश भी मिलता रहता है।
ज्ञान की समृद्धि में विविध भाषाओं का ज्ञान भी सहायक होता है। आचार्य महाश्रमणजी प्राकृत, संस्कृत, अंग्रेजी, हिंदी, राजस्थानी आदि भाषाओं के विज्ञाता हैं। संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं की कोई रचना उनके सामने प्रस्तुत की जाती है तो वे सूक्ष्मता से उसका श्रवण कर उसकी शुद्धि-अशुद्धि पर तत्काल उचित निर्देश प्रदान कर देते हैं।
जैन आगम दसवेंआलियं में कहा गया है-साधु वह होता है, जो ‘सज्झायसज्झाणरयस्स’ स्वाध्याय और ध्यान में रत रहता है। आचार्य रामसेन ने तत्त्वानुशासन में लिखा है-
‘स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत्।
ध्यानस्वाध्यायसम्पत्त्या, परमात्मा प्रकाशते।।’
स्वाध्याय और ध्यान के योग से परमात्मा प्रकाशित होता है। आचार्यश्री महाश्रमणजी का आभामंडल इसी परमात्म-प्रकाश का उदाहरण है। उनकी ज्ञान और ध्यान चेतना ने उनकी तेजस्विता व दिव्यता को साकार किया है। वे कभी भी और कहीं भी हो, अंतर्निहित भगवत्ता के सान्निध्य में होते हैं, अतः सतत ध्यान में होते हैं, जागरूकता का जीवन जीते हैं।
आलोक रश्मियाँ आचार की
ज्ञान व ध्यान का अवतरण जब आचार और व्यवहार में होता है तो संन्यास तेजस्वी बनता है। स्वीकृत व्रतों की निरतिचार परिपालना में उत्थित आचार्यश्री महाश्रमणजी परम आचार कुशल हैं। उनकी पापभीरूता एवं अप्रमत्तता ने उनको आचार के उच्च शिखर पर आरूढ़ किया है। आचार्यवर की ‘समणोऽहं’ सूक्त की जागरूक साधना सबके लिए आदर्श है।
शिष्य के प्रमाद का परिहार और जागरूकता का प्रबोधन उनकी अनुशासन शैली है। एक बार यात्रा में साधु-साध्वियों का गंतव्य स्थल अलग-अलग था। साध्वियों का प्रवास स्थल पूज्यप्रवर से पहले था। मार्ग में हमें पूज्यश्री के दर्शन करने थे। आचार्यवर के विराजने के लिए साध्वियों ने कुर्सी लगा दी। जैसे ही आचार्यप्रवर उस स्थल पर पधारे, संतों से कहा-कुर्सी का प्रतिलेखन करो। प्रतिलेखन करते ही ज्ञात हुआ कि कुर्सी के अधोवर्ती भाग में जंतुओं के जाले हैं। कुर्सी को एक तरफ रख दिया। कम्बल पर खड़े होकर हमें दर्शन दिए। शब्दों से कुछ भी नहीं कहा, किंतु अपने आचार की जागरूकता से सबको प्रतिबोध दे दिया। आचार्यवर का यह लक्ष्य रहता है कि साधु-साध्वियाँ शुद्ध चारित्र का पालन करें। यदा-कदा ऐसे अवसर भी आते हैं, जब साधु-साध्वियों को अपवाद मार्ग का सेवन करना पड़ता है। प्रायः पूज्यप्रवर उनको यह संकेत कर देते हैं कि तुम यह चिकित्सा करवा रहे हो, तुम्हें प्रायश्चित का लक्ष्य सामने रखना है।
आलोक तपस्या का
संन्यास को तेजस्वी बनाने का एक हेतु है तप। सामान्यतया तप का अर्थ समझा जाता है-उपवास, बेला आदि तपस्या करना। आचार्य महाश्रमणजी की तपस्या में रुचि है। तप करने वाले का अनुमोदन करते हैं। युवाचार्य अवस्था में प्रायः अमावस्या के दिन उपवास करते थे। उनके उपवास को आचार्य महाप्रज्ञजी ने अनुसरणीय बताया। एक बार का प्रसंग है-सन् 2006 जेतोमंडी में आचार्य महाप्रज्ञजी प्रवास कर रहे थे। हम साध्वियाँ पाक्षिक क्षमायाचना के लिए पूज्यपाद आचार्यवर के उपपात में पहुँची। क्षमायाचना के पश्चात आचार्यवर ने युवाचार्यप्रवर की ओर संकेत करते हुए पूछा-आज महाश्रमण के क्या है? मैंने कहा-युवाचार्यवर के उपवास का पारणा है। साध्वी सुप्रभाजी भी वहाँ उपस्थित थी। उन्होंने निवेदन किया-आचार्यश्री युवाचार्यश्री को विहार में उपवास क्यों कराते हैं? आचार्य महाप्रज्ञजी दार्शनिक थे, पर उनके जीवन में सरसता थी। कभी-कभी विनोद भी करते थे। उन्होंने साध्वी सुप्रभाजी को कहा-‘क्या करें, मेरी बात मानते नहीं हैं।’ इस संदर्भ में आचार्य महाप्रज्ञजी ने संत लोंगोवाल के प्रसंग को उद्धृत किया। संत लोंगोवाल ने आचार्यश्री तुलसी को कहा-‘आचार्यजी! आप कहें वह कर सकता हूँ, पर राजीवजी से बात नहीं करूँगा। अमावस्या के उपवास में महाश्रमणजी भी वैसी ही बात कर रहे हैं।’ मैंने विनत शब्दों में निवेदन किया-युवाचार्यप्रवर तो आपकी दृष्टि के बिना एक कदम भी नहीं रखते। आचार्यवर ने फरमाया-महाश्रमण अमावस्या के उपवास के साथ प्रतिबद्ध हो गए हैं। इनका उपवास अनुकरणीय है। इस संदर्भ में पूज्यश्री ने उपवास के तीन प्रकार बतलाए-(1) लंघन उपवास, (2) सश्रम उपवास, (3) जप सहित उपवास। महाश्रमण का उपवास इन तीनों बिंदुओं के साथ जुड़ा हुआ है, इसलिए अनुकरणीय है।
एक बार आचार्य महाप्रज्ञजी ने युवाचार्यश्री की तपस्या को रक्षाकवच के रूप में स्वीकार किया। आचार्यप्रवर के उपपात में आगम का कार्य चल रहा था। एक भाई दर्शनार्थ आया और कहने लगा-भंते! कल ग्रहण है। आचार्यवर ने फरमाया-‘ग्रहण है तो अच्छा है, सब ‘¬ हृीं णमो सिद्धाणं’ का जप करेंगे। मैं भी उस समय आगम कार्य में संलग्न थी। मैंने कहा-युवाचार्यवर के तो कल उपवास होगा। आचार्यवर ने सहजता से फरमाया-‘अच्छा है, महाश्रमण उपवास कर रहे हैं। हम सबकी रक्षा हो जाएगी।’ चारों ओर वातावरण में स्मित हास्य प्रस्फुटित हो गया।
तप का एक अर्थ है श्रम। आचार्य महाश्रमणजी का श्रम श्लाघनीय है। तेरापंथ धर्मसंघ के विकास के लिए वे अनवरत पुरुषार्थ कर रहे हैं। अष्टवर्षीय अहिंसा यात्रा में उन्होंने जो श्रम किया है, उसे जड़ शब्दों के द्वारा व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। ब्रह्ममुहूर्त में चार बजे से लेकर लगभग रात्रि के दस बजे तक अनवरत कुछ न कुछ कार्य चलता रहता है। आचार्य महाश्रमणजी तप की बहुत सुंदर और व्यावहारिक परिभाषा फरमाते हैं-शुभयोगस्तपः। शुभ योग में रहना तप है। इस तप की साधना भी दुष्कर है, पर आचार्यवर की यह साधना उनके संन्यास को तेजस्वी बना रही है।
जैन संन्यास ‘तिन्नाणं-तारयाणं’ के ताने-बाने से बना हुआ है। स्वयं तरें, औरों को तारें। जनता-जनार्दन में भगवत्ता का दर्शन करने वाले आचार्य महाश्रमणजी उनके नैतिक उत्थान के प्रति सतत पुरुषार्थ कर रहे हैं। जयपुर में एक बार उपनगरों का स्पर्श करते हुए युवाचार्यश्री महाश्रमणजी अणुविभा में पधारे। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी उनकी अगवानी में पधारे। उनका हस्तावलंबन लेकर सभागार में उपस्थित हुए और युवाचार्यश्री महाश्रमणजी की श्रमनिष्ठा का उल्लेख करते हुए फरमाया-
‘परिस्वेदेन निष्णातः युवाचार्यः समागतः।
तपसा लभ्यते सर्वः तपोनिष्ठा गरीयसी।।’
तेरापंथ धर्मसंघ के भाल पर दीप्तिमान आचार्य महाश्रमणजी का नेतृत्व संघ के हर सदस्य को तेजस्विता के सूत्र देने वाला है। उनके निर्मलतम, पवित्रतम, ज्योतिर्मय और तेजस्वी संन्यास की अभिवंदना हर एक के भीतर की भव्यता को जगाने का निमित्त बन सके, यही काम्य है।