दो अध्यात्म विभूतियों में समानता

दो अध्यात्म विभूतियों में समानता

सत् अनंत धर्मात्मक होता है। जैन दर्शन सात नयों के माध्यम से सत् की व्याख्या करता है। नय का एक भेद संग्रह नय है। यह अभेदग्राही होता है। इसे सामान्यग्राही भी कह सकते हैं। यह एकता या समानता का सूचक है। ‘एक’ में सामान्य या समानता की बात संभव नहीं होती। कम से कम ‘दो’ हों, वहीं सामान्य की बात सामने आती है। ‘एक’ तो विशेष का सूचक है। तेरापंथ धर्मसंघ में आचार्य एक ही होते हैं। यह विशेषग्राही अभिव्यक्ति है। आचार्य की तुलना में कोई भी व्यक्ति नहीं होता। हाँ, द्रव्य निक्षेप के अनुसार पूर्ववर्ती आचार्यों आदि से उनकी समानता का विश्लेषण अवश्य किया जा सकता है।
आचार्य, संघ की सुव्यवस्था के लिए कुछ विशिष्ट नियुक्तियाँ करते हैं, वर्तमान में साध्वीप्रमुखा का मनोनयन व साध्वीवर्या का सृजन इसका उदाहरण है। इन दोनों में समानता के विविध पक्ष ध्यान आकृष्ट करने वाले हैं।

काम करेगी-काम आएगी: सन् 1992 में समणी स्मित प्रज्ञा जी अमेरिका की यात्रा करके आए और लाडनूं में विराजित आचार्यश्री तुलसी एवं युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के समक्ष निवेदन किया-अब मुझे अंतर्यात्रा का अवसर दिराएँ, श्रेणी आरोहण कराएँ। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने इसमें सहमति जताई। आचार्यश्री तुलसी ने फरमाया-ये तो समण श्रेणी में कार्य करने वाली हैं। अभी, साध्वी बनने की बात क्यों? युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ ने कहा-यहाँ काम करेगी। इस कथन के साथ ही आचार्यवर का मानस भी तैयार हो गया और समय के साथ समणी स्मितप्रज्ञा साध्वी विश्रुतविभा बन गई।
जसोल की समता सालेचा का मन था दीक्षा लेने का। समता के बहन-भाई पहले से दीक्षित थे पर समता को भी दीक्षा देने के लिए पारिवारिकजन तैयार नहीं को पा रहे थे। साध्वी मलयश्रीजी व मुनि विश्रुत कुमार जी भी माता-पिता को इस अनुमति के लिए तैयार नहीं कर पाए। आखिर दिल्ली में समता आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के पास पहुँच गई, अपनी स्थिति निवेदित की। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने उनके पिता श्री सोहनराजजी सालेचा को समझाते हुए कहा-समता को रोकते क्यों हो! यहाँ हमारे काम आएगी। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी के उन शब्दों का जादुई-सा असर हुआ और उन्होंने समता को साधना पथ पर बढ़ने के लिए स्वीकृति दे दी।
समानता के आलोक में यहाँ दोनों का ही संबंध आचार्यश्री महाप्रज्ञजी से है। दोनों के संदर्भ में आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के लगभग समानता लिए शब्द अभिव्यक्त हुए-यहाँ काम करेगी और हमारे काम आएगी। आज इन दोनों कथनों के फलितार्थ रूप सामने हैं। आचार्यश्री महाश्रमणजी की दायीं-बायीं आँख के रूप में साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी काम कर रही हैं, साध्वीवर्याश्री सम्बुद्धयशा जी काम आ रही हैं। 

सेतु की भूमिका: तेरापंथ धर्मसंघ में साध्वीप्रमुखा का मनोनयन जयाचार्य के युग से होता रहा है। आचार्य तक साध्वी समाज के संवाद-संप्रेषण में वे सेतु की भूमिका निभाते हैं। महिला संन्यास वर्ग की सार-संभाल में, चित्त समाधि की व्यवस्था कराने में तथा अवसर पर आचार्यवर को उचित निवेदन में साध्वीप्रमुखा की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। आचार्य तुलसी के युग में पारमार्थिक शिक्षण संस्था व समण श्रेणी के दायित्व की कड़ी भी साध्वीप्रमुखा से जुड़ गई।
समय के साथ साध्वीप्रमुखाश्री जी के साथ महाश्रमणी पद आचार्य तुलसी द्वारा दिया गया। समणीगण के व्यवस्था के संदर्भ में साध्वीप्रमुखाश्री जी को भी सहयोग मिले, इसके लिए मुख्य नियोजिका पद सामने आया। पहली बार यह पद साध्वी विश्रुतविभा के साथ जुड़ा। चूँकि साध्वी विश्रुतविभा पहले समणी पर्याय में प्रथम समणी नियोजिका स्मितप्रज्ञा के रूप में समणीगण की व्यवस्था को संभाल चुकी थी, मुख्य नियोजिका के रूप में भी समणीगण व मुमुक्षु बहनों को प्रत्यक्ष उनका मार्गदर्शन उपलब्ध हुआ। 2 जून, 2016 को तेजपुर, आसाम के अंचल में आचार्य महाश्रमण ने एक महनीय दायित्व से जुड़े नए पद का सृजन ‘साध्वीवर्या’ के रूप में किया। साध्वी सम्बुद्धयशा जी इस घोषणा से सामने आए और साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी के रूप में वे प्रतिष्ठित हैं।
नवम् साध्वीप्रमुखा के रूप में आचार्यश्री महाश्रमणजी ने 15 मई, 2022 को सरदारशहर में मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभा के नाम की घोषणा की और विशेषतः साध्वी समाज से जुड़े दायित्व की चादर उन्हें ओढ़ा दी गई। आचार्यप्रवर के इंगित अनुरूप वर्तमान में तेरापंथ के साध्वी गण की सार-संभाल, देख-रेख, सारणा-वारणा आदि का विशेष दायित्व साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी एवं समण श्रेणी व मुमुक्षु बहनों के योगक्षेम का विशेष दायित्व साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी पर है। आचार्यवर द्वारा दृष्टि प्राप्त इन दोनों के मार्गदर्शन में आज तेरापंथ धर्मसंघ का महिला संन्यास वर्ग गतिशील है।

अध्यात्म-विभूतियाँ: साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा एवं साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा तेरापंथ धर्मसंघ की दो अध्यात्म विभूतियाँ हैं। इनके बाह्य व आंतरिक व्यक्तित्व से जुड़े कई पहलू समानता का दर्शन कराते हैं। ‘सं वो मनांसि जानताम्’ अर्थात् हमारे मन समान हों। इस वैदिक प्रार्थना में सफलता का मंत्र निहित है। कुछ समानताएँ वास्तविक होती हैं, कुछ दिखाई देती हैं। समान कार्यक्षेत्र में समान रुचि वालों का समागम शांत व सौहार्दमय वातावरण का सृजन करता है क्योंकि अनौपचारिक सुदृढ़ व्यवस्था के सूत्र वहाँ सहज उपलब्ध होते हैं। व्यक्तित्व के मूर्त और अमूर्त कुछ विशेष गुण, क्रिया, स्वभाव आदि पहलुओं की समानता यहाँ प्रस्तुत हैं।

जन्म की समानता: संन्यासी को द्विजन्मा कहा जाता है। एक जन्म इस धरती पर माँ की कुक्षि से होता है। दूसरा जन्म संन्यास की धरती पर समर्पित चेतना का, जो गुरु की अमिय दृष्टि पाकर होता है। साध्वीप्रमुखा व साध्वीवर्या के जन्म के संदर्भ में दिखाई दे रही समानता यह है कि एक का पहला और एक का दूसरा जन्म, समय की काफी समीपता लिए हुए है। साध्वी प्रमुखाश्रीजी ने समणी दीक्षा में 1980, कार्तिक शुक्ला द्वितीया के दिन चरणन्यास किया। जबकि साध्वीवर्या ने इनके तीन दिन बाद ही, सन् 1980, कार्तिक शुक्ला पंचमी के दिन माँ को निर्भार करते हुए इस धरती पर चरण रखे। कार्तिक माह, शुक्ल पक्ष, सन् 1980 आदि समानताएँ यहाँ सहज उपलब्ध हैं।

नामकरण में समानता
जन्म के साथ ही व्यक्ति इस दुनिया में परिचय व पहचान की अभिधा पाता है। क्षेत्र, समय, परिकर-परिसर का भाव आदि इस अभिधान में योग देता है। दोनों के अभिधान की कुंडली भी कुछ समानता दर्शाती है। समण श्रेणी में समण स्मितप्रज्ञा व समणी समताप्रज्ञा के रूप में दोनों रहे। स्वर नहीं, पर व्यंजन दोनों के नाम के साम्यता लिए हुए है। इससे पूर्व संस्था प्रवेश के साथ साध्वीप्रमुखाजी को सविता व जन्म के साथ साध्वीवर्याजी को समता अभिधान से जाना गया। दोनों के अभिधान में ‘स’ और ‘ता’ समानता है। आचार्य महाश्रमण ने दोनों के ही घर में पुकारे जाने वाले अभिधान में त् को द्वित्व करके तेरापंथ धर्मसंघ के पदस्थ व्यक्तियों में स्थापित कर दिया। साध्वीप्रमुखा व साध्वीवर्या जैसे गौरव मंडित पद पर सुशोभित कर दिया।

पारिवारिक पृष्ठभूमि व संघ में ‘सीर’: दोनों के ही परिवार पीढ़ियों से जिन शासन, भिक्षु अनुशासना से समृद्ध तेरापंथ धर्मसंघ के समर्पित परिवार रहे हैं। दोनों के ही परिवार से संघ में ‘सीर’ है अर्थात् पूर्व में भी इनके परिवार से कुछ सदस्य दीक्षित हुए हैं। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा जी के संसारपक्षीय मासीजी साध्वी चंद्रलेखाजी थे एवं साध्वी सोमप्रभाजी मासीजी की पुत्री हैं। साध्वी जिनप्रभाजी, साध्वी मंगलप्रभाजी, मुदितयशा जी भी आपके परिवार से संबंधित हैं। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी के संसारपक्षीय साधु-साध्वीगण की सुदीर्घ सूची है। साध्वी मलयश्रीजी आपकी अग्रजा एवं मुनिश्री विश्रुत कुमारजी आपके अनुज हैं। साध्वी ख्यातयशाजी आपकी मौसेरी व चचेरी बहन तथा साध्वी उदितयशाजी चचेरी बहन हैं। साध्वी चारित्रप्रभाजी भी आपके परिवार से संबंधित हैं।

क्षेत्र में समानता: दोनों ही भारत के राजस्थान राज्य से संबंध रखती हैं। राजस्थान को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जाता है-मारवाड़, थली, मेवाड़। इस विभाजन में भी दोनों का जन्म स्थान मारवाड़ सीमा में आता है। दोनों के ही जन्म स्थान का नाम तीन-तीन अक्षरों वाला है-लाडनूं-जसोल। दोनों के क्षेत्रों की पहचान नगर के रूप में है।

शारीरिक अवस्था में समानता: शारीरिक दृष्टि से दोनों ही गौर वर्ण हैं। सहज स्फूर्ति उनके सुघटित शरीर में विद्यमान है। आसन, प्राणायाम, ध्यान व श्रम चेतना के संस्कार से दोनों ही बलवती प्रतीत होती हैं।

मानसिक अवस्था में समानता: गुरु चरणों में सर्वात्मना समर्पित व्यक्ति के मन की कहानी गुरु के मन से अलग नहीं होती। गुरु चरणों में तीन मन वाली दोनों ही भगवती आत्माओं का ध्यान गुरु इंगित आराधना से ही जुड़ा हुआ है। आचार्यवर का वरदहस्त उन्हें प्राप्त है और उसी से ऊर्जा प्राप्त कर वे गुरु-शिष्य संबंध को प्रत्यक्षतः कार्यकारी कर रही हैं। दोनों के विचार, भावनाएँ, चित्त उद्देश्य एकमात्र गुरु दृष्टि के अनुरूप आचरण से आबद्ध हैं।

दीक्षा में समानता: दोनों ने ही वैराग्यभाव के साथ तेरापंथ धर्मसंघ में संन्यास के मार्ग को स्वीकार करने का निर्णय किया। दीक्षा से पूर्व तैयारी-शिक्षा-साधना हेतु पारमार्थिक शिक्षण संस्था में प्रवेश किया। आचार्यवर से दृष्टि प्राप्त कर समण श्रेणी में दीक्षित हुए। एक दशक से अधिक समय समण श्रेणी में रहकर शिक्षा, साधना व संयम के संस्कारों का गहन सिंचन पाया। यात्राओं के माध्यम से प्राप्त संस्कारों के प्रचार-प्रसार में योगदान दिया। अंतर्यात्रा की तीव्र पिपासा के साथ दोनों ने समण श्रेणी से आरोहण करते हुए साध्वी जीवन में प्रवेश पाया। दोनों की ही समणी दीक्षा व बाद में श्रेणी आरोहण कर साध्वी दीक्षा भी अपनी-अपनी जन्मभूमि में ही हुई। समणी स्मितप्रज्ञा सन् 1992 में, कार्तिक कृष्णा सप्तमी के दिन साध्वी विश्रुतविभा बन गए। समणी समताप्रज्ञा सन् 2012 में, कार्तिक कृष्णा छठ के दिन साध्वी सम्बुद्धयशा बन गए। दशक के दूसरे वर्ष तथा कार्तिक कृष्ण पक्ष में आरोहण की समानता यहाँ भी द्रष्टव्य हैं। दोनों की ही दीक्षा के समय एक साथ इक्कीस सदस्यों ने दीक्षा ग्रहण की।

शिक्षा में समानता: दोनों की ही प्रतिभा निखार में उच्च शैक्षणिक योग्यता की भूमिका रही है। दोनों ने ही घर में रहते हुए बारहवीं कक्षा तक का अध्ययन किया। समण श्रेणी में रहकर जैन विश्व भारती संस्थान से एम0ए0 किया है। दोनों ने ही भाषा के क्षेत्र में विशेष अध्ययन करते हुए अंग्रेजी, गुजराती, प्राकृत, संस्कृत भाषा में कौशल हासिल किया है। हिंदी व राजस्थानी भाषा पर तो आपका सहज अधिकार है ही।

अध्यात्म में समानता: अहिंसा की आत्मा अपरिग्रह में विराजती है। पदार्थ से अनासक्त चेतना ही आत्मा के सन्मुख हो सकती है। जो व्यक्ति संग्रह करना नहीं जानता, उसके भीतर का परमात्मा बोलना शुरू कर देता है। दोनों का ही जीवन साफ-सुथरा है, शैली कलात्मक है। दोनों की ही अपरिग्रही, अल्पोपधि चेतना समाधि दर्शाने वाली है। अध्यात्म के सार को हस्तगत कर चुकी आपकी असंग्रही मनोवृत्ति आदरणीय है।

व्यवस्थापक्ष संबंधी समानता: व्यक्ति-व्यक्ति होता है लेकिन प्रतिनिधि बनते ही उसकी अभिव्यक्ति विस्तार पा लेती है। दोनों संघीय स्तर पर अंतरंग व्यवस्था पक्ष से जुड़ी हैं। इस व्यवस्था पक्ष को लेकर भी दोनों की कुछ समानताएँ उभरकर सामने आती हैं। जैसे-दोनों के ही व्यवस्था संबंधी प्रारंभिक तार मुमुक्षु बहनों व समण श्रेणी की व्यवस्था से जुड़े हैं। साध्वीप्रमुखाश्री जी ने पहले मुमुक्षु सविता के रूप में, बाद में समणी स्मितप्रज्ञा व मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभा के रूप में संस्था में मुमुक्षु बहनों की व्यवस्था का दायित्व बखूबी निभाया है। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी का भी व्यवस्था से जुड़ा पक्ष मुमुक्षु बहनों से शुरू हुआ। वर्तमान में समण श्रेणी व मुमुक्षु बहनों के प्रबंधन का सूत्र सीधा साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी से जुड़ा हुआ है। वे युगानुरूप कौशल के साथ साधक आत्माओं के निर्माण में सजग हैं।
साध्वीप्रमुखाश्री जी समण श्रेणी की प्रथम नियोजिका से लेकर अनेक रूपों में प्रबंधन से जुड़े रहे। वर्तमान में वे साध्वी समुदाय का योगक्षेम निर्वहन कर रहे हैं। आचार्यवर के मार्गदर्शन-अनुरूप संपूर्ण महिला संन्यास वर्ग के नव निर्माण हेतु साध्वीप्रमुखाश्रीजी एवं साध्वीवर्याजी तत्पर हैं।

बहुश्रुत पार्षद्: संघीय स्तर पर दोनों ही बहुश्रुत परिषद् की माननीया सदस्या हैं। अपने उर्वर मस्तिष्क, मौलिक चिंतन, व्यापक दृष्टिकोण, उदार व्यवहार व प्रशस्त नीति के माध्यम से पूज्यप्रवर के भार को कम करने व संघ को नई गहराइयाँ व ऊँचाइयाँ प्रदान करने में श्रमरत हैं।

द्वितीय स्थान: दोनों ने ही आचार्यवर के कार्य में सहभागिता साध्वी समुदाय के अद्वितीय द्वितीय स्थान पर रहकर की हैं एवं कर रही हैं। आचार्यवर के अनुग्रह से महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी की विद्यमानता में मुख्यनियोजिका साध्वी विश्रुतविभाजी को द्वितीय स्थान का अधिमान दिया जाता था। साध्वीप्रमुखा पद पर इनको परम पूज्य आचार्यवर द्वारा प्रतिष्ठित किए जाने से साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी का स्थान द्वितीय हो गया।

अध्ययन में योगक्षेम: इस संसार में विकास की कहीं कोई इतिश्री नहीं होती। दोनों का ही जीवन इस सच्चाई का दर्शन कराने वाला है। सतत अध्ययन एवं प्रयोग आपके प्रिय विषय हैं। जैन धर्म एवं तुलनात्मक धर्म दर्शन, विज्ञान, मनोविज्ञान से जुड़ी जानकारी से परिचित होने में तत्परता आपमें दिखाई देती है। प्रेक्षाध्यान, जप व योग प्रयोगों से समृद्ध अनुभव समूह में आप वक्ताओं के माध्यम से व व्यक्तिगत स्तर पर सुझावों के माध्यम से बाँटते हैं।
प्राकृत, संस्कृत व हिंदी में निबद्ध व रचित अनेक स्तोत्र आदि आपके दैनिक स्वाध्याय के विषय हैं। कंठस्थ के पुनरावर्तन में स्वाध्यायशीलता दोनों की ही प्रेरणास्पद हैं। नवीन व सीखे हुए ज्ञान के अर्थ पर विचार करने में दोनों सजग हैं। लक्ष्य से इधर-उधर ले जाने वाली किसी भी बात में रस न लेते हुए, उसमें समय जायज न करते हुए व्यक्तिगत स्तर पर दोनों ही सम्यग् ज्ञान चेतना की संवाहक हैं। विकास की यह यात्रा एकाकी नहीं, सामूहिक हों, इसके लिए भी उदाहरण दोनों के स्वभाव में हैं। संघ में कला, भाषा, दर्शन, गणित, विज्ञान, प्रबंधन, अध्यात्म व धर्म की शाखाओं को अनवरत विकसित, पुष्पित, पल्लवित करने में ये योग दे रहे हैं।

कुशल लिपिकार: छोटे-छोटे सुघड़, सुंदर अक्षर आप दोनों की विशेष पहचान है। साध्वी विश्रुविभाजी को प्रायः आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के सान्निध्य में उनकी आत्मकथा आदि के लेखन में लिपिकार बनने का सौभाग्य मिला। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी आचार्यश्री महाश्रमण जी के सान्निध्य में आचार्यवर की आत्मकथा आदि के लेखन कार्य में रत हैं।
विशेष ध्यातव्य बिंदू यह है कि यहाँ लिपिकार की भूमिका केवल श्रुतलेखन ही नहीं है। श्रुतलेखन के मध्य कुछ प्रासंगिक बिंदुओं पर अपने विचार, जिज्ञासा, तर्कशक्ति का उपयोग, उचित निवेदन आदि भी वे करते हैं। उससे विषय के स्पष्टीकरण के साथ कई नए पहलुओं को भी उभरकर आने का अवसर मिलता है।

कुशल वक्ता: ओजपूर्ण वाणी, सारपूर्ण कथ्य, शोधपूर्ण प्रस्तुति, सैद्धांतिक व प्रायोगिक विषय का प्रतिपादन तथा जनभोग्य प्रवचन शैली आपकी कुशल वक्तृत्व कला का प्रमाण है।

कुशल संवाहक: कोई भी व्यवस्थापक अपने सदस्यों की योग्यता व कमजोरी से परिचित होता ही है। उनको ध्यान में रखते हुए औचित्यपूर्ण प्रोत्साहन, प्रेरणा, सारणा-वारणा की शैली आपने पाई है। पदस्थ गरिमा के अनुरूप समय पर साहसपूर्ण कथन व विवेकपूर्वक मौन का रहस्य दोनों में सहज है। स्वभाव की सौम्यता, समाधान देने में सहयोगी वृत्ति के कारण आपने सबकी शुभकामनाएँ पाई हैं और गुरु के आशीर्वाद से निरंतर शुभभाग्य को पुष्ट कर रहे हैं।

परिणाम दर्शक: अपने चिंतन-विचार कार्य की समीक्षा सुनने व उसके अनुरूप ध्यान देने में भी आप तत्पर हैं। परिणाम दर्शन की आपकी शैली से ही संघ में विविध स्तरीय साधना व शिक्षा के उपक्रम जारी हैं। आपने मर्यादित व अनुशासित शैली व उदार दृष्टिकोण के आधार पर नित नवीन प्रयोगधर्मिता से चित्त समाधि के विकास को संघीय सदस्यों की मानस भूमि में प्रतिष्ठित किया है, कर रहे हैं।

परम कुशल छत्र-छाँव: गुरुदेव की महत्ती कृपा वत्सलतामय छत्र-छाँव में अनुकूल परिस्थितियों का सहयोग दोनों को उपलब्ध है। आचार्यश्री महाश्रमण जी की दृष्टि के अनुरूप इनका योगदान संघ के सौभाग्य की श्रीवृद्धि में निमित बनता रहे-यही शुभ भावना है।
समानता की खोज में कुछ सूत्रों की तलाश होती है, जो पहले न देखा हो, उस पर प्रकाश डालने का प्रयास होता है। यही प्रयास यहाँ किया गया है। समानता के ये ऐसे सत्य हैं जो सबके द्वारा समान रूप से स्वीकार किए जा सकते हैं। विस्तार से विवेचना के लिए अवकाश सदा उपलब्ध है।