अप्रमत्त योग की परम साधिका साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा
साध्वी मुदितयशा
15 मई, 2022 का मंगल प्रभात। तेरापंथ भवन, सरदारशहर का विशाल हॉल। आचार्यश्री महाश्रमण जी की पावन सन्निधि। लोगों की आँखें आतुर थीं कुछ नया देखने के लिए। कान उत्कर्ण थे कुछ अभिनव सुनने के लिए। आचार्यश्री महाश्रमण जी ने नवम साध्वीप्रमुखा पद के लिए साध्वी विश्रुतविभा जी के नाम की उद्घोषणा कर लोगों की अभिनव सुनने की प्यास को तृप्त कर दिया। अपने पवित्र हाथों से रजोहरण, प्रमार्जनी एवं ग्रासदान का अद्भुत दृश्य प्रस्तुत कर लोगों की आँखों को आनंद-सागर में निमज्जित कर दिया। एक पुराना और परिचित नाम नए रूप में लोगों के अधरों पर तैरने लगा- साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा।
जप, तप और स्वाध्याय की अद्भुत समन्विति का नाम है साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा।
आत्मनिष्ठा, गुरुनिष्ठा और संघनिष्ठा की सुंदर त्रिपदी है साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा।
समर्पण, सहिष्णुता और अनुशासनप्रियता की त्रिपथगा है साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा।
आचार्यश्री तुलसी के द्वारा दीक्षित, आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी के द्वारा प्रशिक्षित और आचार्यश्री महाश्रमण जी के द्वारा प्रतिष्ठित एक विशिष्ट व्यक्तित्व का नाम है साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी अप्रमत्त योग की परम साधिका है। तलहटी से शिखर पर आरोहण की उनकी यात्रा का मुख्य सूत्र रहा-अप्रमत्तता।
अप्रमत्तता किसके प्रति?
अप्रमत्तता अपनी साधना के प्रति
अप्रमत्तता ज्ञान की आराधना के प्रति
अप्रमत्तता गुरु-इंगित की अनुपालना के प्रति
अप्रमत्तता दायित्व के निष्ठापूर्वक निर्वहन के प्रति
अप्रमत्तता आचार और व्यवहार के प्रति
अप्रमत्तता गुणात्मक विकास के प्रति
आकर्षण साधना का
साधना के दो मुख्य आयाम हैं-स्वाध्याय और ध्यान। व्यक्ति की चेतना जब स्वाध्याय और ध्यान से भावित होती है, भीतर का परमात्म तत्त्व प्रकाशित होने लग जाता है। इसी सचाई को उजागर करते हुए आचार्य रामसेन ने लिखा है- ”स्वाध्यायध्यानसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते“ साध्वीप्रमुखाश्री जी की स्वाध्यायशीलता उल्लेखनीय है। रात्रि में देर से सोए या कदाचित् जल्दी भी सोना पड़े, पर प्रातः चार बजे से पहले-पहले उठकर ध्यान-साधना में लीन हो जाना नियत है। चार बजे स्वाध्याय का क्रम शुरू हो जाता है। ज्ञातव्य है कि ब्रह्ममुहूर्त में स्वाध्याय का क्रम उस समय शुरू हुआ था जब आप पारमार्थिक शिक्षण संस्था में थीं। तब से अब तक यह क्रम अविच्छिन्न बना हुआ है। इतने लंबे समय तक ब्रह्म बेला में जागरण, साधना और स्वाध्याय की अविच्छिन्नता जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि है। स्वाध्याय और ध्यान की भाँति जप में भी आप अपना काफी समय नियोजित करती हैं।
तपस्या साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। तपस्या में साध्वीप्रमुखाश्री जी की सहज अभिरुचि है। आप प्रतिमाह प्रायः सात उपवास करती हैं और वह भी बड़ी सहजता और अप्रमत्तता के साथ। बेला, तेला आदि करना भी आपके लिए बहुत सहज है। तपस्या के साथ-साथ आपका आहारसंयम भी उल्लेखनीय है।
बहुमान ज्ञान के प्रति
ज्ञानचेतना के विकास की पहली शर्त है ज्ञान के प्रति बहुमान का भाव। साध्वीप्रमुखाश्री जी के मन में ज्ञान एवं ज्ञानी के प्रति हमेशा बहुमान का भाव रहता है। ज्ञान का विकास होता रहे, इसके लिए आप सतत प्रयत्नशील रहती हैं। स्वयं अध्ययन करना, दूसरों को पढ़ाना, अध्ययन की प्रेरणा देते रहना, अध्ययन करने वालों को प्रोत्साहित करना, अध्ययनरत व्यक्तियों के प्रति प्रमोदभाव व्यक्त करना-ये सारी बातें साध्वीप्रमुखाश्री जी के जीवन में बहुलता से देखी जा सकती हैं। यही कारण है कि आपके ज्ञान में उत्तरोत्तर निखार आ रहा है।
जिज्ञासा ज्ञान को बढ़ाने का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। चाहे तत्त्व की बात हो या दर्शन की, संस्कृत का सामान्य ग्रंथ पढ़ना हो या किसी गंभीर ग्रंथ का वाचन चले, कोई भी अस्पष्ट बात जब तक स्पष्ट नहीं होती, आप उस विषय में जिज्ञासा और समाधान का प्रयत्न करती रहती हैं। सचमुच श्लाघनीय है ज्ञान के विषय में आपकी अप्रमत्तता एवं पराक्रशीलता।
जागरूकता गुरु-इंगित की आराधना के प्रति
गुरु और शिष्य का संबंध विनय और वात्सल्य का संबंध है। शिष्य के लिए सफलता की मुख्य कसौटी है गुरु के प्रति सर्वात्मना समर्पण। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी गुरु इंगित की आराधना के लिए हमेशा सजग और सचेष्ट रहती है। आपके भीतर गुरुभक्ति का भाव उच्चता लिए हुए है।
सरदारशहर में युगप्रधान पदाभिषेक, षष्टिपूर्ति समारोह, साध्वीप्रमुखा मनोनयन आदि अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम परिसंपन्न हुए। उसके बाद परमपूज्य आचार्यश्री महाश्रमण जी ने बीकानेर संभाग की यात्रा की। आचार्यप्रवर ‘कालू’ में सुदीर्घजीवी साध्वी बीदामांजी को सेवा-उपासना करा रहे थे। शासनमाता साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी की गुरुभक्ति का प्रसंग चल रहा था। आचार्यवर ने प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए फरमाया-”साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा का भी गुरुभक्ति का भाव उल्लेखनीय है।“ आचार्यवर ने एक प्रसंग के द्वारा अपनी बात को स्तुत करते हुए कहा-काठमांडो की यात्रा की योजनाएँ बन रही थीं। एक चिंतन यह भी आया कि सात साध्वियाँ आचार्यवर की सेवा में रहें और शेष साध्वियाँ अन्य मार्ग से काठमांडो पहुँच जाएँ। मुख्य नियोजिका जी ने मुझसे कहा-गुरुदेव! सात साध्वियाँ आपश्री के साथ जा रही हैं, आठवीं साध्वी के रूप में एक मुझे भी आप अपने साथ ले जाने की कृपा कराएँ।
आचार्यप्रवर ने कहा-”मुख्य नियोजिका के पद पर होते हुए भी जब इन्होंने यह कहा कि एक मुझे भी ले जाएँ तो मुझे यह बहुत बड़ी बात लगी। मुझे इनकी गुरुभक्ति और गुरुसेवा का भाव उल्लेखनीय प्रतीत हुआ।“ गुरुभक्ति का निदर्शन है साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा जी का जीवन।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी के लिए गुरुदृष्टि सर्वोपरि है। आचार्यवर काठमांडो की यात्रा संपन्न कर पहाड़ों से नीचे पधारे। साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी आदि साध्वियों ने पूज्यप्रवर के दर्शन किए। पूज्यप्रवर ने प्रसंगवश फरमाया-”काठमांडो की यात्रा में मुख्य-नियोजिका जी आदि अनेक साध्वियाँ हमारे साथ रहीं। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा जी की भाँति मुख्य-नियोजिका जी भी गुरु इंगित के प्रति हमेशा सजग रहती। ये छोटे से छोटा कार्य भी हमारी दृष्टि प्राप्त करके ही करती थी। इनमें भी विनय और समर्पण का भाव अच्छा है।“
काठमांडो नेपाल की यात्रा के बाद शिलोंग मेघालय की यात्रा हुई, जगदलपुर आदि नक्सलवादी क्षेत्रों की यात्रा हुई, कोटा संभाग की यात्रा हुई और रायपुर से इंदौर की यात्रा हुई, इन सारी यात्राओं के दौरान साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी की अनुपस्थिति में आपने गुरु इंगित की आराधना करते हुए सारी व्यवस्थाओं का बड़े कौशल के साथ संचालन किया।
जागरूकता दायित्व-निर्वहन के प्रति
तेरापंथ धर्मसंघ में एक नेतृत्व की परंपरा है। सारे निर्णय और निर्देश गुरु के द्वारा दिए जाते हैं। गुरु व्यक्ति को छोटा दायित्व भी सौंप सकते हैं और बड़ा दायित्व भी सौंप सकते हैं। सफलता की कसौटी है जागरूकता। दायित्व के निर्वहन में जागरूक रहने वाला उस कसौटी में उत्तीर्ण हो जाता है।
आचार्यश्री महाश्रमण जी ने समय-समय पर साध्वीप्रमुखाश्री जी को अनेक कार्य सौंपे, अनेक जिम्मेवारियाँ दीं। आपने हर जिम्मेवारी को, हर कार्य को अच्छे ढंग से पूर्ण किया। महाप्रज्ञ जन्म शताब्दी के अवसर पर महाप्रज्ञ वाङ्मय के संपादन का विशाल कार्य करना-कराना हो या आचार्य महाप्रज्ञ जी की कम से कम 21 पुस्तकों के अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करने-कराने की जिम्मेवारी हो। महाप्रज्ञ श्रुताराधना पाठ्यक्रम के संचालन का दायित्व हो या साध्वीप्रमुखा अमृत महोत्सव पर ‘अमृतम्’ ग्रंथ के समायोजन का दायित्व हो। कोरोना के दौरान ‘कर्मवाद’ पर ऑनलाइन दो माह तक लगातार भाषण शंृखला चलाने की बात हो या पूज्यप्रवर के प्रवचन से पूर्व महीनों तक उपदेश देना हो, आपने हर जिम्मेवारी का निष्ठा से निर्वहन किया। कभी-कभी आपके सामने अनेक कार्य रहते हैं, पर गुरुदेव ने जो निर्देश दे दिया, उसकी क्रियान्विति आपके लिए सर्वोपरि हो जाती है।
साध्वी दीक्षा स्वीकार करने से पहले समण श्रेणी में भी आपको जब जो दायित्व मिला आपने उसका बखूबी निर्वहन कर गुरुओं का विश्वास अर्जित किया। अपनी कार्यनिष्ठा से नई पहचान बनाई।
जागरूकता आचार-व्यवहार के प्रति
आचार हमारा परम धर्म है। आचारनिष्ठ व्यक्ति प्रत्येक छोटी-बड़ी मर्यादा का अंतर्मन से पालन करता है। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी की आचार विषयक जागरूकता श्लाघनीय है। जो करणीय है उसकी क्रियान्विति के प्रति आप जितनी जागरूक हैं, अकरणीय को न करने के प्रति भी उतनी ही सजग हैं। साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी अनेक बार कहती थी-”मुख्य-नियोजिका जी छोटे से छोटे कार्य के लिए भी पहले आज्ञा लेती है। यह बात अन्य सब साध्वियों को इनसे सीखनी चाहिए।“ जो व्यक्ति स्वयं जागरूक होता है वही दूसरों को जागरूक बना सकता है। साध्वीप्रमुखाश्री जी की हर प्रवृत्ति जागरूकता की जीवंत प्रेरणा है।
साधु का एक नियम है-मार्ग में चलते समय बात न करना। साध्वीप्रमुखाश्री जी अन्य नियमों की भाँति इस नियम का भी बड़ी दृढ़ता से पालन करती हैं। कभी बोलना आवश्यक हो जाए तो पाँव रोककर ही बात करती हैं। विहार के समय प्रायः आपके मौन ही रहता है।
एक बार का प्रसंग है, आचार्यश्री महाश्रमण जी के उपपात में विहारों में प्रहर के संदर्भ में चर्चा चल रही थी। आप उस समय मुख्य-नियोजिका जी के रूप में उपासना में आसीन थी। चर्चा के दौरान आपने कहा-गुरुदेव! विहार के समय मेरे तो प्रायः दो प्रहर हो जाती है। आचार्यवर ने आश्चर्य के साथ पूछा-दो प्रहर कैसे? आपने कहा-गुरुदेव! एक प्रहर तो चौविहार प्रत्याख्यान के रूप में हो जाती है और एक प्रहर मौन की हो जाती है। जो व्यक्ति लक्ष्य के प्रति जागरूक होता है उसके लिए हर क्षण एक उपलब्धि बन जाता है।
विनम्रता और निरहंकारिता
साध्वीप्रमुखाश्री जी के व्यवहारों में सहज शालीनता है। आपने अपने संयत, विनम्र और मृदु व्यवहारों से सबके मन को आकर्षित किया है। आचार्यवर की सन्निधि में महाप्रज्ञ वाङ्मय के लोकार्पण का कार्यक्रम था। कार्यक्रम बड़े गरिमामय रूप में समायोजित हुआ। आखिरी चरण में पूज्यप्रवर का उद्बोधन था। आचार्यवर ने मुख्यनियोजिका साध्वी विश्रुतविभा जी की कार्यनिष्ठा, विनम्रता और निरहंकारिता का उल्लेख करते हुए फरमाया-”मुख्य नियोजिका जी हमारे धर्मसंघ में पदस्थ हैं। इतने बड़े पद पर होते हुए भी मैंने देखा-जब भी वाङ्मय के विषय में संतों के साथ विमर्श करना होता, एक सामान्य साध्वी की तरह आसन लगाकर नीचे बैठ जाती। मुझे यह बहुत बड़ी बात लगी। सचमुच विनम्रता और निरहंकारिता का उदाहरण है साध्वीप्रमुखाश्री जी का जीवन।
व्यवहारों के सौष्ठव में उपशांत कषाय की साधना का भी बड़ा योग रहता है। साध्वीप्रमुखाश्री जी के कषाय सहज शांत हैं। धैर्य और संतुलन आपके नित्य सहचारी हैं। आपकी सोच ऊँची और सकारात्मक है। हर व्यक्ति के जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। परिस्थितियाँ कभी अनुकूल होती हैं तो कभी प्रतिकूल भी हो सकती हैं, पर जिसकी सोच सम्यक् और सकारात्मक होती है, वह सारी परिस्थितियों से अप्रभावित रहता हुआ आगे बढ़ जाता है। साध्वीप्रमुखाश्री जी के जीवन में सकारात्मक सोच का पक्ष प्रभावी रहा है। हर स्थिति में संयत और संतुलित रहते हुए आपने हमेशा आत्मविकास के सोपानों पर आरोहण किया है। अपनी गुणात्मक सुवास से सबको सुवासित किया है।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी का जीवन साधना के सुमनों से सज्जित है। आपके जीवन में अप्रमत्तता का दीप हमेशा प्रज्ज्वलित रहा है। आपने समण श्रेणी में बारह वर्षों तक अपनी साधना, ज्ञानाराधना के साथ व्यवस्थाओं का कुशलता से संचालन किया। अनेक व्यक्तियों के निर्माण में योगभूत बनी। देश-विदेशों की यात्राएँ कर संघीय प्रभावना का अध्याय सृजित किया। श्रेणी आरोहण के बाद आपको विशेष रूप से आगम अध्ययन, आगम कार्य में नियोजित किया गया। इसके साथ-साथ आपको आचार्यश्री महाप्रज्ञ के साहित्य से जुड़कर कार्य करने का और आगे बढ़ने का एक सुंदर अवसर प्राप्त हुआ। आपके चरण सदा गतिमान रहे। विकास का ग्राफ ऊपर उठता चला गया।
समण श्रेणी के धवल समारोह में आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने आपको समण श्रेणी की मुख्य नियोजिका बनाकर श्रेणी की देखरेख की जिम्मेवारी सौंपी। कुछ ही समय पश्चात् साध्वी समाज में साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी के बाद द्वितीय स्थान पर नियुक्त कर आपके गौरव को मानो शतगुणित कर दिया।
आचार्यश्री महाश्रमण जी ने आपको साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी की अनंतर सहयोगी बनाकर मुख्य नियोजिका के पद पर प्रतिष्ठित किया। आचार्यप्रवर ने अनेक बार इस कथन को दोहराया-साध्वी समाज में पहला स्थान साध्वीप्रमखा कनकप्रभाजी का है और दूसरा स्थान मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभाजी का है। शासनमाता के महाप्रयाण के मात्र दो माह बाद पूज्यवर ने आपश्री को साध्वीप्रमुखा के पद पर नियुक्त करके साध्वी समाज का सिरमोर बना दिया। नवम साध्वीप्रमुखा के रूप में आप सदैव निरामय रहते हुए साध्वी समाज का पथदर्शन करें। संघ में अपनी विशिष्ट सेवाएँ प्रदान करें। आपके कुशल नेतृत्व में साध्वीवृंद, समणीवृंद और महिला समाज विकास के नए शिखरों का स्पर्श करे। आपश्री के जीवन का हर क्षण मंगलमय हो, हर दिन उपलब्धि भरा हो। प्रथम मनोनयन दिवस पर आपके प्रति अनंत-अनंत मंगलकामना।