गुरु की अमृत दृष्टि प्राप्त नवम साध्वीप्रमुखा

गुरु की अमृत दृष्टि प्राप्त नवम साध्वीप्रमुखा

समणी सत्यप्रज्ञा
दुनिया को अपने अनुरूप बनाने में कुछ लोग अहर्निश लगे रहते हैं। दुनिया में सारा विकास इसी तरह के लोगों पर निर्भर है। अहिंसा, संयम, समता, तपस्या और वीतरागता के पुरोधा पुरुष आचार्यश्री महाश्रमण जी हैं। उनका जीवन इसी तरह के सद्गुणों से सृष्टि को अनुप्राणित करने के लिए है। संयम की सुवास को व्यापक बनाने के लिए अनेक ऊर्जामय आस्थान भी उन्होंने प्रतिष्ठित किए हैं। इनमें एक महत्त्वपूर्ण आस्थान का नाम है-नवम साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा।
जैन धर्म की प्रगतिशीलता की एक पहचान तेरापंथ धर्मसंघ है। इसमें साध्वीप्रमुखा के रूप में कार्य करते हुए साध्वी विश्रुतविभा जी को एक वर्ष हो रहा है। यह जो इनका ‘आज’ है, न जाने कितने ‘कल’ इसकी बुनियाद में हैं। इनके परिचय की पृष्ठभूमि में गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी द्वारा कर्तव्यषट् त्रिशिका में लिखित एक श्लोक सामने आ जाता है-

गुरु दृष्टि मनु दृष्टि रिंगितं चेंगितं तथा।
विचारोऽनुविचारं स्यात्।।

गुरु कभी साधारण नहीं होता। सृष्टि का कोई कर्ता है या नहीं? दर्शन जगत में यह पक्ष-प्रतिपक्ष का विषय हो सकता है, लेकिन शिष्य के भाग्य निर्माण में गुरु का योग सभी जगह और सभी के द्वारा लगभग एक मत से स्वीकार किया जा सकता है। हाँ, कब, किसके सामने कौन गुरु बनकर आया-इसमें विविधता संभव है। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी के परिचय का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष गुरु के प्रति सर्वात्मना समर्पण का है। जिन शासन के तेरापंथ धर्मसंघ की अंतरंग सदस्या बनने के साथ ही उनकी यह समर्पण यात्रा गतिशील है।
साध्वीप्रुखाश्री विश्रुतविभा जी का मानना है, जीवन एक नाव की तरह है, इसकी सही जगह पानी पर ही है। लेकिन पानी को नाव में घुसने नहीं दिया जा सकता, उससे तो नाव डूब जाती है। इसी तरह तेरापंथ धर्मसंघ में विकास की सारी यात्रा गुरु दृष्टि के अनुरूप आराधना साधना करने में है। गुरु के इंगित आकार के अनुसार वर्तन करने में हैं। गुरु के विचारों से भावित अपने आचार में रंग भरने में हैं। संक्षेप में कहें तो गुरु के साथ तादात्म्य सध जाने के बाद ‘अपना मन’ जैसा कुछ रह ही नहीं जाता। गुरु की इच्छा ही शिष्य का संपूर्ण संसार है। इस विचार यात्रा के आलोक में यदि उनकी जीवन यात्रा पर दृष्टिपात करें तो लगता है-ये उनके शब्द या मान्यता ही नहीं जीवन भी है।
गुरुदेव श्री तुलसी ने समण श्रेणी का एक सपना देखा। उसे आकार देने, उसमें रंग भरने सबसे पहले जो साहसी व समर्पित बारह कदम आगे बढ़े, उनमें दो कदम मुमुक्षु सविता के थे। समण श्रेणी में दीक्षा के साथ ही गुरुदेव श्री तुलसी ने उन्हें समणी स्मितप्रज्ञा का अभिधान दिया। प्रथम समणी नियोजिका, पारमार्थिक शिक्षण संस्था की व्यवस्था में प्रथम समणी निर्देशिका, साध्वी वर्ग में प्रथम मुख्य नियोजिका आदि के दायित्वशील पदों ने आपकी साधना को ‘संगच्छध्वम्’ साथ-साथ चलने का प्रारूप प्रदान किया।
आचार्यश्री महाप्रज्ञ की अध्यात्म-रश्मियों से भावित होकर आपने आत्मनिष्ठा व गुरुनिष्ठा में अद्वैत सा स्थापित कर लिया। विविध परिस्थितियों में भी इस अद्वैत की राह पर चलने के आपके सामर्थ्य ने आपको विशेष विभा प्रदान की। कुछ नाम, काम, गुण, समान आदि चुंबक की तरह होते हैं। आचार्यश्री महाश्रमण इसी तरह के चुंबकीय व्यक्तित्व के धनी हैं। उनके आभावलय में अभिभूत हो अंतर के तार गुनगुनाने लगते हैं-‘मोहे लागी लगन---।’ इसी तरह की लगन से अनुप्राणित है साध्वी विश्रुतविभाजी का अंतरंग व्यक्तित्व। तेरापंथ धर्मसंघ के साध्वी-समणी वर्ग के व्यवस्था पक्ष से आप गुरुदेव श्री तुलसी के युग से आचार्यप्रवर के निर्देशानुसार जुड़े रहे हैं।
शासनमाता साध्वीप्रमुख कनकप्रभा जी का सुखद साया साध्वी-समाज को सुदीर्घ काल तक उपलब्ध रहा। उनके व्यवस्था कौशल व मातृ-वत्सल हृदय ने साध्वी समाज को पर्याप्त संपोष प्रदान किया। मार्च, 2022 में समय धर्म ने उनकी प्रत्यक्ष सन्निधि को, उनके स्थान को रिक्त कर दिया। साध्वी विश्रुतविभा जी पहले मुख्य नियोजिका के रूप में आचार्यवर के इंगित अनुसार साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा को साध्वी समाज की व्यवस्था को सुगम बनाने में योग देती थी, हाथ बँटाती थी। अब आचार्यवर से सीधा संपर्क उनका इस संदर्भ में हो गया। सरदारशहर में आचार्यप्रवर ने साध्वीप्रमुखा के रिक्त स्थान की पूर्ति की। प्रायः एक सहजता के साथ जैसे एक साँस से जुड़कर दूसरा साँस चलता है, गहन गांभीर्य और मृदुता के सुमनों से सज्जित आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभा जी को नवम साध्वीप्रमुखा के महनीय पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। तेरापंथ धर्मसंघ में साध्वी समाज के सर्वोच्च पद पर आसीन साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा जी को देखते हुए मेरे स्मृति कोश से भी कुछ प्रसंग उभरकर दस्तक सी देने लगे। पहला प्रसंग है लगभग 1986 का, जिसमें मुझे बोध हुआ-व्यवस्थापक गुरुदृष्टि की सृष्टि को आकार देने में माध्यम बनते हैं। गुरु व्यवस्थापक को सघन-सघनता-सघनतम छाया प्रदान करते हैं। आचार्य श्री तुलसी उस समय लाडनूं में विराज रहे थे। पारमार्थिक शिक्षण संस्था का व्यवस्था पक्ष लगभग प्रभारी संयोजक कल्याणमलजी बरड़िया, राणमलजी जीरावला, मेरूलालजी बरड़िया आदि के माध्यम से व मुमुक्षु बहनों में ‘बड़ी बहिन’ से चल रहा था। आचार्यप्रवर ने उस व्यवस्था में कुछ मोड़ देते हुए मुमुक्षु बहनों की अंतरंग व्यवस्था में समणी जी को जोड़ा। संस्था की बहनों में संसार निर्माण व सारणा-वारणा में यह नया प्रयोग था। प्रथम व्यवस्थापिका के रूप में समणी स्मितप्रज्ञा जी को नियुक्त किया गया। पूरे वर्ग के साथ इनका प्रवास पारमार्थिक शिक्षण संस्था के प्रांगण में ही ऊपर के कक्ष में होता। समय-समय पर विविध संगोष्ठी, कार्यक्रम आदि आयोजनों के साथ दैनिक गतिविधियाँ-प्रार्थना आदि भी इनके सान्निध्य में होते। इस रूप में संस्था में रहकर मुमुक्षु बहनों के संचालन का यह प्रथम प्रसंग था। नई व्यवस्था से नया माहौल संस्था में बना हुआ था। कुछ ही समय बाद, संभवतः दो-चार महीने बाद ही एक अनपेक्षित वातावरण संस्था में बना। संभव है, किसी बहन को नई व्यवस्था के प्रति कुछ अन्यथा भाव आया हो या हास्यवश अनपेक्षित बात की हो, व्यवस्थापिका समणीजी के संदर्भ में खाने-पीने आदि के विषय में उसने बात की और पर्याप्त फैलाई भी। बात व्यवस्थापक समणीजी के कानों में भी पहुँची और आचार्यवर तक भी। आचार्यप्रवर को समणीजी के प्रति दृढ़ विश्वास था कि वे ऐसा नहीं कर सकते। बात जो हो रही है, वह सही नहीं है। आचार्यवर ने तत्काल समणी जी के साथ सभी मुमुक्षु बहनों की मीटिंग बुलाई। भिक्षु विहार के पूर्व भाग के कक्ष में गुरुदेव विराजे हुए थे। कड़ी दृष्टि के साथ बात का उल्लेख करते हुए आचार्यप्रवर ने पूछा-यह बात किस-किस मुमुक्षु बहन को पता है, इसको सुना है या अपने मुँह से किसी को बताया है। प्रायः काफी बहनें खड़ी हो गई। क्योंकि किसी ने सुनना चाहा हो या सुनाया गया हो---शायद ही कोई बहन बची हो। मूल बात कहाँ से उठी या किसने उठाई-इसकी खोज तो बाद में सामने आई। गलत सुनने या जानकारी होने मात्र से भी सब बहन प्रायश्चित्त करने योग्य हैं, इस संस्कार को पुष्ट करते हुए आचार्यवर ने सभी को एक-एक एकासन प्रायश्चित्त स्वरूप प्रदान किया। और भविष्य की प्रेरणा व सजगता व संदेश देते हुए कहा-‘उतरती गणी-गण तणी, कोई मती करो, मत सुणो सैण हो। भीखणजी स्वामी। भारी मर्यादा बांधी संघ में’।
तेरापंथ धर्मसंध की जन्मघुट्टी के साथ मिले ये संस्कार हैं। व्यवस्थापकों के प्रति सम्मान के भाव संघ की चिर-जीविता के हेतु हैं। एक आचार्य का नेतृत्व सुव्यवस्था व सुगमता के लिए ‘सहसुबाहु’ वाला भी होता है। व्यवस्थापक आचार्य के ही प्रतिनिधि होते हैं। सूर्य साक्षात हर कमल कोश तक पहुँच पाए या नहीं, उसकी रश्मियाँ ही कमल के विकास के लिए पर्याप्त हैं। हर व्यवस्थापक उसी रश्मि के रूप में है। समणी स्मितप्रज्ञा को मिली गुरुदेव श्री तुलसी की वह छत्रछाँव आज भी आँखों के सामने जीवंत है।
सन् 1991 में समणी दीक्षा में प्रवेश के साथ ही मुझे समणी स्मितप्रज्ञा के साथ 11 माह रहने का सौभाग्य मिला। चूँकि उसके बाद श्रेणी आरोहण के साथ वे साध्वी विश्रुतविभा की अभिधा प्राप्त कर लिए। साधना-शिक्षा का अनुकूल माहौल व प्रेरणा उस प्रारंभिक दौर में मुझे सुलभ हुआ। मेरी दीक्षा के लगभग दो वर्ष बाद किसी प्रसंग में मैं आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी के पास बात कर रही थी। ध्यान योगी आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने मार्गदर्शन करने के साथ-साथ ही पूछा-‘पहले तो तुम समणी स्मितप्रज्ञा के साथ थी, अलग ही साधना का माहौल था, अब कैसा, क्या चल रहा है?’ आगे की वार्ता की यहाँ प्रसंग न भी हो। प्रासंगिक यह है कि जिनकी साधना व जिनकी साधना से भावित आस-पास के वातावरण के प्रति पूज्यप्रवर इस तरह विश्वस्त हों, उनकी साधना व सौभाग्य की सराहना सहज हो जाती है। इस तरह की अमिय गुरु दृष्टि जिनसे जुड़ी हो, उसकी तुलना में क्या कुछ अन्य ठहर सकता है। कदापि नहीं। उस परम पावन गुरु दृष्टि की छत्रछाँव में साध्वी विश्रुतविभा जी की बाल सुलभ निश्छलता तो देखी ही, निगर्विता भी देखी, सहज साधना, सौम्यता व तपस्या भी देखी।
हर दिन नया सूर्य सामने आता है, नया प्रकाश, नया तेज लिए आचार्यश्री महाश्रमण तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम दैदीप्यमान भास्कर हैं। आपश्री के सान्निध्य में साध्वीप्रमुखा के रूप में उन्हें देखकर वही छत्रछाँव नित्य नवीनता के साथ साकार हो रही है। गुरु-निष्ठा व आत्म-विश्वास के पैरों से सतत गतिशील उनकी जीवन यात्रा विविध सृजनात्मक पहलू लिए हुए है। आगम-स्वाध्याय में गहन-अवगाहन के साथ संयम-संपोषण पहलू उजागर हो रहे हैं। साहित्य, शोध, भाषा आदि के शैक्षणिक पहलू, तप, जप, ध्यान आदि के साधनाशील पहलू, संगीत, शिल्प आदि के कलात्मक पहलू उनके माध्यम से साध्वी समाज में पल्लवित-पुष्पित हो रहे हैं।
परम पावन आचार्यश्री महाश्रमण का सान्निध्य तेरापंथ धर्मसंघ को सतत कल्पतरु की सुखद छाँव प्रदायक है। इस कल्पतरु के माध्यम से साध्वीप्रमुखा के रूप में एक मनोहार सुमन साध्वी समाज को विशेष रूप से उपलब्ध हुआ है। संपूर्ण धर्मसंघ व मानव जाति को इस सुमन की सौरभ से अनुप्राणित होने का अवसर मिल सके। यही मंगलकामना है। एक वर्ष की ‘साध्वी प्रमुखा’ के रूप में हुई यह यात्रा आगामी वर्षों में संघ श्री वृद्धि, हृी वृद्धि और धी वृद्धि का माध्यम बनती रहे। गुरुदेव श्री तुलसी के शब्द हैं-‘शुभ भविष्य है सामने’। इन शब्दों में निहित अंतरात्मा नित्य नवीन आकार में संघ-चमन को सुरभित करती रहे-यही अभ्यर्थना है।