उपासना
आचार्य तुलसी
श्रावक श्री बहादुरमलजी भंडारी
संबंधों की शर्त
भंडारीजी की धार्मिक लगन इतनी उत्कृष्ट थी कि उनके परिवार का कोई भी व्यक्ति उस रंग में रंगे बिना नहीं रह पाता था। साधु-साध्वियों के प्रति उनका आदर-भाव बहुत गहरा था। उनके पद का गौरव भी उसमें कभी बाधक नहीं बन पाया। एक बार कुछ उच्च राज्याधिकारी, जो कि ओसवाल समाज के ही थे, भंडारीजी से कहने लगेµ‘हम लोग आपके परिवार में बेटी देने में इसलिए संकोच करते हैं कि आपके परिवार की स्त्रियाँ साधु-साध्वियों के आगमन तथा विदाई के समय उनके पीछे-पीछे पैदल जाती हैं।’
भंडारीजी ने भी उतनी ही स्पष्टता से उत्तर देते हुए कहाµ‘हाँ, यह आप लोगों के लिए पहले से ही सोच लेने की बात है। मेरे घर में कुलवधू बनकर आएगी उसे तो साधु-साध्वियों के गमनागमन पर उनके पीछे-पीछे पैदल चलना आवश्यक होगा।’
एक राजाज्ञा; एक पारितोषिक
भंडारीजी ने समय-समय पर धर्मसंघ की सेवाओं में अपना बहुत ही मौलिक योगदान दिया। सेवा की अनेक घटनाओं में से एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना अग्रोक्त है। सं0 1920 में जयाचार्य ने मुनिपतजी को चूरू में दीक्षा प्रदान की। मुनिपतजी के पिता जयपुर-निवासी थानजी चोपड़ा के यहाँ गोद आए थे, परंतु परस्पर अनबन हो जाने के कारण उनसे पृथक् हो गए। भावी वशात् पृथक् होने के पश्चात् शीघ्र ही उनका देहांत हो गया। ऐसी विपन्न अवस्था में भी थानजी ने लगभग बारह वर्षों तक अपनी पुत्र-वधू तथा पोते की कोई सार-संभाल नहीं ली। इसी अवधि में माता तथा पुत्र को विराग हो गया। जयाचार्य ने पहले मुनिपतजी को उनकी माता की आज्ञा लेकर दीक्षित किया तथा लगभग छह महीने पश्चात् उनकी माता को भी दीक्षा प्रदान की।
इस दीक्षा के थोड़े दिन पश्चात् जब जयाचार्य लाडनूं विराजमान थे तब थानजी ने जोधपुर-नरेश तख्तसिंहजी के सम्मुख इस आशय का एक आवेदन-पत्र प्रस्तुत किया कि आचार्य जीतमलजी ने मेरे पोते को बहकाकर मूंड लिया है, अतः उन्हें गिरफ्तार किया जाए और मुझे मेरा पोता दिलाया जाए। वे इस समय लाडनूं में हैं। नरेश ने सत्यासत्य की खोज किए बिना ही उस बात पर विश्वास कर लिया और आदेश दे दिया कि दस सवार भेजकर गुरु और शिष्य को पकड़ लिया जाए तथा शीघ्र ही उन्हें मेरे सम्मुख उपस्थित किया जाए। इस आदेश के अनुसार तत्काल वहाँ से दस घुड़सवार रवाना कर दिए गए। जोधपुर से लाडनूं लगभग दो सौ किलोमीटर दूर है।
थानजी की पहँुच इतनी नहीं थी, किंतु इस सारी घटना के पीछे फलोदी के ढड्ढा परिवार का हाथ था। उन्होंने ही थानजी को उकसाया कि तुम पुकार लेकर जाओ, हम पूर्ण रूप से तुम्हारी सहायता करेंगे। थानजी स्वयं तेरापंथ के विरोधी थे, परंतु ढड्ढा परिवार तो और भी अधिक उग्रता से विरोध रखता था। वह परिवार धनाढ्य होने के साथ-साथ राज्य में पहुँचे वाला भी था। उन लोगों को तेरापंथ से इतना द्वेष इसलिए था कि उनके परिवार की एक वधू सरदार सती ने दीक्षा लेनी चाही थी। वे बाल-विधवा थी। वर्षों तक अनुनय-विनय करने पर जब उन्हें आज्ञा नहीं दी गई तब उन्होंने आजीवन सागारिक अनशन कर दिया। इस पर उन्हें बाध्य होकर आज्ञा देनी पड़ी। वे नहीं चाहते थे कि उनके घर की कोई वधू भिक्षुणी बनकर भीख माँगती फिरे, किंतु फिर भी वैसा हुआ। सरदार सती ने जयाचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की थी। वे लोग उस समय तो कुछ नहीं कर सके, पर अब यह एक अच्छा अवसर समझकर उन्होंने थानजी को आगे कर दिया और उनकी ओट में स्वयं कार्य में लग गए।
इस षड्यंत्र का किसी प्रकार से बहादुरमलजी भंडारी को पता लग गया। उन्होंने थोड़ी खोज-बीन की तो सारी घटना सामने आ गई। उन्हें यह जानकर बड़ी चिंता हुई कि नरेश ने आज दस घुड़सवार लाडनूं की ओर भेज दिए हैं। सारी बात की व्यवस्थित जानकारी होते ही उन्होंने यथाशीघ्र लाडनूं में जयाचार्य तथा स्थानीय श्रावकों के पास उपर्युक्त घटना के समाचार पहुँचाने के लिए एक पत्र-वाहक को शीघ्रगामी ऊँट पर भेजा। उसके पश्चात् वे अविलंब तैयार होकर नरेश से मिलने के लिए गए। रात हो चुकी थी। नरेश अंतःपुर में जा चुके थे। उन्होंने रात्रिकालीन परिधान भी धारण कर लिया था। उसी समय भंडारीजी ने पहुँचकर ‘नाजरजी’ के माध्यम से मिलने की आज्ञा माँगी, नरेश ने कहलाया कि अब तो मैं कपड़े भी बदल चुका हूँ, अतः प्रातः मिल लेना। भंडारीजी ने भी तत्काल सूचना करवाई कि प्रातः कोई अन्य चाहे मिल ले, भंडारी का तो शव ही मिलेगा। नरेश ने शब्दों के पीछे रहे गंभीर अर्थ की ओर ध्यान दिया और तत्काल बाहर मिले।
(क्रमशः)